राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा देते नेता
रमेश सर्राफ धमोरा
राजनीति में अक्सर परिवार वाद की चर्चा होती रहती है। देश की जनता के मन में परिवार वाद के विरोध में आक्रोश तो रहता है मगर उसके उपरान्त भी देश की राजनीति में सैदव परिवार वाद फलता-फूलता रहा है। हमारे देश की राजनीति में परिवार वाद की शुरूआत करने में नेहरू परिवार को अग्रणी माना जाता रहा है। नेहरू परिवार जो बाद में गांधी नाम से जाना लाने लगा की वर्तमान में पांचवी पीढ़ी राजनीति कर रही है।
नेहरू परिवार के पहले सदस्य पण्डित मोतीलाल नेहरू 1919 व 1928 में दो बार कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। उनके पुत्र पण्डित जवाहरलाल नेहरू आजादी के बाद बनी देश की प्रथम सरकार के प्रधानमंत्री बने। जवाहरलाल नेहरू कई बार कांग्रेस के अध्यक्ष व 17 वर्षो तक देश के प्रधानमंत्री रहे। मोतीलाल नेहरू की पुत्री विजयलक्ष्मी पण्डित आजादी से पूर्व बनी सरकार में मंत्री थी व 1953 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की प्रथम महिला अध्यक्ष बनी। उन्होने राजदूत व राज्यपाल के पदो पर भी काम किया। मोतीलाल नेहरू की तीसरी पीढ़ी में उनकी पौत्री इन्दिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री व कांग्रेस की अध्यक्ष रही।
मोतीलाल नेहरू की चौथी पीढ़ी में इदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री व कांग्रेस अध्यक्ष रहें। इन्दिरा गांधी के दूसरे पुत्र संजय गांधी सांसद व कांग्रेस महासचिव रहे। राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी वर्षो कांग्रेस अध्यक्ष व कई बार सांसद बन चुकी है। संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी कई बार सांसद बनी व अभी भाजपा सरकार में मंत्री है। मोतीलाल नेहरू की पांचवी पीढ़ी में राजीव गांधी के पुत्र राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष व सांसद हैं वहीं उनकी बहिन प्रियंका गांधी कांग्रेस की महासचिव है। संजय मेनका गांधी के पुत्र वरूण गांधी सांसद है।
कांग्रेस नेता कमलापति त्रिपाठी की चार पीढिय़ा राजनीति करती रही है। कमलापति त्रिपाठी खुद केन्द्र में रेल मंत्री व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। उनके पुत्र लोकपति त्रिपाठी उत्तर प्रदेश में मंत्री व पुत्रवधू चंदा त्रिपाठी सांसद रही। कमलापति के पौत्र राजेशपति व प्रपोत्र ललितेश पति विधायक रह चुके हैं। चौधरी देवीलाल हरियाण के मुख्यमंत्री व देश के उपप्रधानमंत्री रहे वहीं उनके बड़े पुत्र ओमप्रकाश चौटाला हरियाणा के मुख्यमंत्री, छोटे बेटे रणजीत सिंह सांसद रहें हैं। देवीलाल के पौत्र अजय,अभय सांसद, विधायक व पौत्र वधू नैना चौटाला विधायक है। देवीलाल के परिवार में चौथी पीढ़ी में उनके प्रपोत्र दुष्यंत चौटाला अभी सांसद है।
जम्मू कश्मीर में शेख अब्दुल्ला परिवार में तीन सदस्य मुख्यमंत्री रह चुके हैं। शेख अब्देल्ला स्वंय तो मुख्यमंत्री रहे ही उनके पुत्र फारूक अब्दुल्ला व पौत्र उमर अब्दुल्ला भी मुख्यमंत्री रह चुके हैं। कांग्रेस के बड़े नेता जगजीवन राम ताउम्र केन्द्र सरकार में मंत्री रहे। उनके पुत्र सुरेश राम विधायक रहें व पौत्री मेधावी कीर्ति हरियाणा सरकार में मंत्री रह चुकी हैं। जगजीवन राम की पुत्री मीराकुमार केन्द्र सरकार में मंत्री व लोकसभा अध्यक्ष रह चुकी है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री व केन्द्र में मंत्री रहे हेमवती नन्दन बहुगुणा देश के बड़े नेता थे। उनकी पत्नी कमला बहुगुणा सांसद रही थी। उनके पुत्र विजय बहुगुणा उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। बहुगुणा की तीसरी पीढ़ी में उनके पौत्र सौरभ बहुगुणा अभी उत्तराखण्ड में सितारगुज से विधायक हैं। हेमवती नन्दन बहुगुणा के दूसरे पुत्र शेखर बहुगुणा भी इलाहाबाद से 2012 में विधानसभा चुनाव लड़ कर हार गये थे। बहुगुणा की पुत्री रीता बहुगुणा जोशी अभी उत्तरप्रदेश की भाजपा सरकार में पर्यटन मंत्री है व आगामी लोकसभा चुनाव में प्रयागराज से भाजपा टिकट पर चुनाव लडऩे जा रही है। रीता बहुगुणा जोश भाजपा में आने से पहले महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष व उत्तरप्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं।
किसान नेता व पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह की भी तीसरी पीढ़ी राजनीति में सक्रिय है। चौधरी चरणसिंह की पत्नी गायत्री देवी सांसद रही तो उनके पुत्र अजीत सिंह कई बार केन्द्र सरकार में मंत्री रहे। चरणसिंह के पौत्र जयन्त चौधरी सांसद रह चुके हैं। चरणसिंह की पुत्री ज्ञानवती दो बार विधायक रह चुकी हैं। पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा खुद राजनीति में सक्रिय है व तुमकुर सीट से आगामी लोकसभा चुनाव लडऩे जा रहे हैं। उनका छोटा बेटा कुमारस्वामी कर्नाटक का मुख्यमंत्री व बड़ा बेटा एच डी रेवेन्ना कर्नाटक सरकार में मंत्री है। मुख्यमंत्री कुमार स्वामी की पत्नी अनिता कुमारस्वामी विधायक है। कुमार स्वामी का बेटा निखिल लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी है। उनके बड़े बेटे एच डी रेवेन्ना का बेटा प्रजव्वल अपने दादा की परम्परागत हासन सीट से लाकसभा चुनाव लडऩे जा रहा है। इस तरह देखे तो देवेगौड़ा का पूरा कुनबा राजनीती की मलाई खाने में लगा है।
उत्तरप्रदेश की समाजवादी पार्टी तो पूरी तरह से परिवारवादी पार्टी बनी हुयी है। समाजवादी पार्टी के पूर्व मुखिया मुलायमसिंह यादव सांसद है व आगामी लोकसभा चुनाव लडऩे जा रहे हैं। उनके पुत्र अखिलेश यादव मुख्यमंत्री व सांसद रह चुके है। पुत्र वधु डिम्पल यादव सांसद रही हैं। उनके भाई शिवपाल सिंह यादव उत्तर प्रदेश में मंत्री रहें हैं। उनके बड़ भाई रतनसिंह का पोता तेजप्रताप यादव सांसद है। उनके परिवार में दर्जनभर से भी अधिक सदस्य सांसद,विधायक व अन्य पदो पर काबिज है।
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री चौधरी बंसीलाल के पुत्र सुरेन्द्र सिंह सांसद व मंत्री रहे तो दूसरे पुत्र रणबीर सिंह महेन्द्रा विधायक व भारतीय क्रिकेट कंटं्रोल बोर्ड के अध्यक्ष रह चुके हैं। बंसीलाल की पुत्रवधू किरण चौधरी दिल्ली विधानसभा की उपाध्यक्ष व हरिणाण में मंत्री रही है। वे अभी हरियाणा में कांग्रेस विधायक दल की नेता है। बंसीलाल की पोती श्रुती चौधरी हरियाणा में सांसद रह चुकी हैं। राजस्थान के बड़े जाट नेता नाथूराम मिर्घा कई बार सांसद व केन्द्र सरकार में मंत्री रहे थे। उनके पुत्र भानुप्रताप मिर्धा नागौर से सांसद रहे व पोती ज्योति मिर्धा भी नागौर से पूर्व सांसद है तथा अब फिर से कांग्रेस टिकट पर मैदान में है।
परसराम मदेरणा राजस्थान सरकार में कई बार मंत्री, विधानसभा अध्यक्ष व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे हैं। उनके पुत्र महिपाल मदेरणा राजस्थान में मंत्री थे मगर भंवरीदेवी कांड के कारण जेल भेजे गये। मदेरणा की पोती दिव्या मदेरणा वर्तमान में विधायक है। मदेरणा की पुत्रवधू लीला मदेरणा जोधपुर की जिला प्रमुख रह चुकी है। हिमाचल प्रदेश के सुखराम हाल ही में कांग्रेस में घर वापसी कर चर्चा में हैं। वो प्रदेश व केन्द्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं। नरसिंम्हाराव सरकार में जब वो संचार मंत्री थे तब उनके घर से बड़ी राशि बरामद होने के कारण उनको केन्द्रीय मंत्रीमंडल से हटाया गया था। उनके पुत्र अनिल शर्मा भाजपा की सरकार में मंत्री है व पूर्व में राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं। सुखराम मंडी से अपने पौत्र आश्रय शर्मा को कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़वाने जा रहे हैं।
राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह कई बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं। उनके पुत्र राजवीर सिंह अभी सांसद है व पूर्व में राज्य सरकार में मंत्री रह चुके हैं। कल्याण सिंह के पौत्र संदीप सिंह उत्तरप्रदेश सरकार में मंत्री हैं। उमाशंकर दीक्षित कांग्रेस के बड़े नेता थे। वो तीन बार राज्यसभा सदस्य, इन्दिरा गांधी सरकार में मंत्री, कर्नाटक व पश्चिम बंगाल के राज्यपाल व कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहे थे। उनकी पुत्र वधू शीला दीक्षित अभी दिल्ली की कांग्रेस अध्यक्ष हैं। वो पूर्व में केन्द्र सरकार में मंत्री व तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकी है। उमाशंकर दीक्षित के पौत्र संदीप दीक्षित दिल्ली से सांसद रह चुके हैं।
मराठा क्षत्रप शरद पवार केन्द्र में मंत्री व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उनकी पुत्री सुप्रिया सूले बारामती से सांसद है। पवार के भाई अनन्त राव के बटे अजीत पवार महाराष्ट्र सरकार में मंत्री व विधायक रहे हैं। अजीत पवार के पुत्र पार्थ पवार मावली से लोकसभा चुनाव लडऩे जा रहे हैं। शरद पवार के दूसरे भाई अप्पा साहेब के पुत्र राजन्द्र पवार के पुत्र रोहित पवार भी सक्रिय राजनीति में आने को प्रयत्नशील है। रणवीर सिंह हुड्डा संविधान सभा के सदस्य रहे थे। वो हरियाणा व पंजाब सरकार में मंत्री, लोकसभा व राज्यसभा के सांसद रहे थे। उनके पुत्र भूपेन्द्र सिंह हुड्डा चौधरी देवीलाल को लगातार तीन बार लोकसभा चुनाव में हराया था। भूपेन्द्र सिंह दो बार हरियाण के मुख्यमंत्री रहे। रणवीर हुड्डा के पौत्र दीपेन्द्र हुड्डा सांसद है।
एनटी रामाराव खुद आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। उनके पुत्र व पुत्रिया सांसद,विधायक व मंत्री बने। रामाराव के दामाद चन्द्रबाबू नायडू आन्ध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री है। चन्द्रबाबू नायडू के पुत्र नारा लोकेश राज्य सरकार में मंत्री हैं। तमिलनाडू के मुख्यमंत्री रहे एम करूणनिधी के पुत्र अलागिरी केन्द्र में मंत्री रहे तो दूसरे पुत्र स्टालिन दु्रमक अध्यक्ष व विधायक हैं। उनकी पुत्री कनिमोजी राज्यसभा सांसद हैं। उनके भतीजे दयानिधि मारण केन्द्र सरकार में मंत्री रहे हैं। भ्रष्टाचार के आरोप में उनकी बेटी कनिमोजी सहित कई लोगो को जेल भी जाना पड़ा था। लालू यादव, दिगविजय सिंह, अशोक गहलोत, कमलनाथ, राजनाथ सिंह जैसे नेता राजनीति में वंशवाद की बेल बढ़ाने में लगे हैं।
देश की राजनीति में परिवार वाद को आज सभी दलो के नेता बढ़ावा देने में लगे हैं। कोई भी राजनीतिक दल इससे अछूता नहीं है। परिवार के बढ़ते प्रचलन से राजनीति में काम करने वाले कार्यकर्ताओं को अनपे हक से महरूम होना पड़ता है। राजनीति में जब तक बढ़ते परिवारवाद पर लगाम नहीं लगेगी तब तक आम कार्यकर्ताओं के लिये मौके नहीं मिलेगें।
अंतरिक्ष में सैटेलाइट सर्जिकल स्ट्राइक
हेमेन्द्र क्षीरसागर
अटूट वादे व अटल इरादे से किसी भी समस्या का हल और मनवांछित फल को हासिल किया जा सकता है। जिसके परिणाम कमशकम सैन्य, शोध व सामरिक क्षेत्रों में तो परिलच्छित होने लगे है। पादुर्भाव पहले सर्जिकल स्ट्राइक बाद एयर सर्जिकल स्ट्राइक और अब अंतरिक्ष में सैटेलाइट सर्जिकल स्ट्राइक ने देश को ब्राह्मण की महाशक्ति बना दिया। गगन में बड़ा धमाका भारत की ‘अंतरिक्ष क्रांति की जीती जागती मिशाल है। 27 मार्च को भारत ने एंटी सैटेलाइट मिसाइल का सफलता पूर्वक प्रक्षेपण किया। इसके तहत 300 किमी आकाश में लो-आर्बिट जासूसी सैटेलाइट को 3 मिनट में नष्ट कर दिया। पश्चात् राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बताया कि अब की बार अंतरिक्ष में घुसकर हमने किया है प्रहार। दरम्यान प्रधानमंत्री ने इस सिद्धि प्राप्ति पर वैज्ञानिकों, अनुसंधानकर्ताओं और जुड़े हुए कर्मवीरों को बधाई देकर देश की इस ऐतिहासिक कामयाबी का श्रेय इसरो, डीआरडीओ और देशवासियों को दिया।
गौरतलब रहे कि, अंतरिक्ष में रूस, अमेरिका और चीन के बाद भारत महाशक्ति बनने वाला दुनिया का चौथा देश बन गया। यह मिशन शाक्तिमान संचार, सुरक्षा और सांमरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण और देश के लिए गौरवशाली है। जिसकी जितनी उत्कंठ मन से प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है। अतुलनीय स्वदेशी, तकनीकी और संचार की खासी उपलब्धि वैज्ञानिकों के कमाल, कर्मठता, योग्यता और प्रतिब्द्धता की अहर्निश देन है। बेहतर भारत पर बुरी नजर रखने वालों की अब खैर नहीं क्योंकि देश को नई क्षमता व ताकत प्राप्त हो गई। दुश्मन देश की संचार, सुरक्षा प्रणाली को नष्ट किया जाना आसान हो गया।
खासतौर पर पूर्ण रूपेण भारत में ही निर्मित मिसाइल से सैटेलाइट सर्जिकल स्ट्राइक की गई। सही मायनों ये देश की नई ऊर्जा, बढ़ती आर्थिक ताकत का परिचय और सामरिक साहस का प्रतिक है। प्रतिमान स्वदेशी, परवालंबन, वैज्ञानिक स्वयं सिद्धि, परिश्रम तथा सरकार की संकल्पित इच्छा शाक्ति से अधिष्ठित हुआ है। यकीन मानिए इतिहास में ऐसे कम ही मौके आए होंगे जब किसी देश ने अपने दम पर ऐसा विराट साहसिक कार्य किया हो। हकीकत भी यही बयां करती है कि खुद पर भरोसा करो, अपनो पर भरोसा करो सफलता अवश्य मिलेंगी। यथेष्ट इसके पीछे अपने ही मैक इन इंडिय़ा, मैड इन इंडिय़ा और स्किल इंडिया व स्किल्ड इंडि़या का विशेष सांगोपांग है।
दरअसल, अंतरिक्ष मिशन ‘शक्ति’ अत्यंत कठिन ऑपरेशन था लेकिन अंतरिक्ष में भारती सफलता का परचम वैज्ञानिकों के असाधरण योगदान से फहरा है। बहादुरी से देश का मान व सम्मान बढ़ा तथा अंतरिक्ष इतिहास में हिंदुस्तान नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो गया। वो भी किसी अंर्राष्ट्रीय संधी व नियमों को तोड़े बिना। फलीभूत पृथ्वी पर बैठकर जासूसी उपग्रहों पर प्रक्षेपास्त्र से हमला करने में हम अब सक्षम हो गए। कहा जाता है अगली लड़ाई अंतरिक्ष पर लड़ी जाना है इसके लिए यह हिम्मतदारी, नेतृवकारी और तैयारी निश्चित ही मील का पत्थर साबित होगी। लिहाजा, प्रक्षेपण से अंतरिक्ष में भारत ने अपना जो पराक्रम दिखाया उसका दूरगामी असर आने वाले समय में पूरे विश्व पर पड़ना लाजमी है । बानगी में देश-विदेश से सधी हुई प्रतिक्रिया आने लगी। दौर में अमेरिका जैसे शक्ति संपन्न देश ने नासा के साथ इसरो मिलकर अंतरिक्ष में और अधिक मानव हितैषी काम करे ऐसी इच्छा जाहिर की है।
अभिष्ट इस आर्थिक मंदी के दौर में भी सैन्य, आंतरिक्ष, राष्ट्रीय सुरक्षा, सरहद पर, विज्ञान, तकनीकी, शिक्षा, कौशल और आर्थिक दृष्टि समेत हरेक मामलों में राष्ट्र मजबूत और सुदृढ़ होकर उभरा है। बेहतरीन आज विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थ महाशक्ति आज भारत ही है। अलौकिक आज सरकार ने अपने सेना, विज्ञान, वैज्ञानिकों और संसाधनों का बखूबी सम्मान जनक उपयोग कर कुछ कर गुजरने का पूरा खुला मौका दिया, परिवर्तन हमारे सामने है। इतर पहले दूसरे देश इस ज्ञान और प्रतिभाओं का फायदा उठाकर हम पर आंख दिखाते थे, अब ये नामुमकिन है। ताजुब है पहले भी विज्ञान और बहुमुखी वैज्ञानिक थे फिर क्यों मुनासिब नहीं हुआ, यह समझ से परे है? बावजूद घर में ही लकीर के फकीर ढर्रे बाज मसले पर नुक्ता-चिनी करने से बाज नहीं आ रहे है।
खैर! भारत आज हर तरह से आगे बढ़ रहा है या यूं कहें हम समय से दो कदम आगे है चल रहे है कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। नतीजतन सर्जिकल स्ट्राइकों से अब नहीं बचेगा हमारे जल-थल-वायु और नभ पर निगाहें जमाए कोई आतंक, दुश्मन और जासूस। इसे कहते है नेतृत्व, नीति, नीयत और हिम्मत। अतः ये है तो सब मुमकिन है। जय जवान! जय किसान! जय विज्ञान!
मूर्ख दिवस परंपरा और आज
गोविन्द चन्दोरिया
इस अत्याधुनिक युग में मनुष्यों की बढ़ती महात्वाकांक्षाएं और चांद पर बसने का इरादा उसे इतना जागरुक बना चुका है कि तमाम व्यस्तताओं के बावजूद वह अपने वर्तमान के साथ ही साथ भविष्य के प्रति भी हर क्षण सचेत रहता है। उसकी सजगता ने उसे आज के रीति-रिवाज और काम-काज से भी जोड़ दिया है। पहले ऐसा नहीं था सादा जीवन वाले लोग आसानी से मूर्ख बना दिए जाते थे और हंसी का पात्र बनते हुए भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती थी। आज के जागरुक इंसान को मूर्ख बनाना आसान नहीं और जानबूझकर तो उसे बिल्कुल भी मूर्ख बनना बर्दाश्त नहीं होता है। दरअसल व्यस्तता इतनी है कि आपकी इस तरह की मूर्ख बनाने वाली किसी भी प्रक्रिया में वह शामिल ही नहीं होता है और यदि हो भी गया तो अपने दिमाग से उसे अपने आज के सापेक्ष से जोड़कर विचार करने के बाद ही प्रतिक्रिया देता है। जबकि तीन दशक पहले यदि देखें तो इंसान न तो इतना व्यस्त दिखाई पड़ता था और न ही जागरुक। समाज के ऐसे कुछ ही लोग थे जो सजग होते और दूसरों को जगाने का काम करते थे। आज की नेट इन्फारमेशन टेकनोलॉजी ने सभी को सजग बनाने जैसा काम कर दिखाया है। शहर से लेकर गांव तक के लोग अति जागरुक हो गए हैं।
गौर करें कि इन्सान के मनोरंजन के इतने साधन पिछले पांच दशक में कहां थे, जितने की इस समय मौजूद हैं। तब मनुष्य मनोरंजन समूहों में बैठकर आपसी विचार-विमर्श, किस्से, कहानियां और मसखरी के माध्यम से करता था। उसकी सोच अपने आस-पास की प्रकृति और लोगों तक ही सीमित होती थी। उसे त्यौहारों, पर्वों और दिवसों की जितनी भी जानकारी रेडियो, पत्र-पत्रिकाओं और कैलेंडर के माध्यम से मिलती थी उन्हें वह हंसी-खुशी मनाता और अपने आप में मस्त रहता था। इसलिए तब अप्रैल फूल यानि मूर्ख दिवस के दिन एक-दूसरे को मूर्ख बनाने का बड़ा चलन था। लोग बहाने बनाकर, झूठ बोलकर, अपने सगे-संबंधियों व मित्रों को मूर्ख बनाते और उसे मसखरी करते देखे जाते थे। छोटी-छोटी बातों से लेकर बड़े से बड़े झूठ बोले जाते और कोई बुरा न मानता। कोई कह देता- चाचाजी आपको पापा बुला रहे हैं। यदि वे आते तो सब बच्चे और बड़े मिलकर चिल्लाते ’अप्रैल फूल बनाया, सबको मजा आया’। कभी-कभी मोहल्ले के टेढ़े स्वभाव वाले व्यक्ति को मूर्ख बनाने का प्लान बनाया जाता। सब मिलकर तैयारी करते। कोई बड़ी हिम्मत करके उसे झूठी सूचना देता और प्रतिक्रिया देखने को सब छुपकर बैठ जाते। जब वह मूर्ख बनता तो सारे मोहल्ले को बड़ा मजा आता। इस प्रकार के किस्सों की बातें, चौपालें और ठीहों पर हफ्तों चलतीं और लोग हंसते रहते। मूर्ख दिवस मनाने की शुरुआत के बारे में कोई निश्चित तिथि और तथ्य नहीं हैं। सोलहवीं शताब्दी के पूर्व अंग्रेजी नया वर्ष 1 अप्रैल से प्रारंभ होता था। सोलहवीं शताब्दी में उसे बदलकर 1 जनवरी कर दिया गया जो वर्तमान में जारी है। परंतु जिन लोगों को यह सूचना नहीं मिल पाई थी वह एक अप्रैल को ही नववर्ष मनाते रहे। इस प्रकार के विरोधाभास के चलते 1 अप्रैल ऑल फूल-डे बन गया। सदियों से इसे मूर्ख दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। फ्रांस के बच्चों में मछली के माध्यम से अपने साथियों को मूर्ख बनाने की प्रथा है। मूर्ख दिवस के संबंध में कुछ अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं। इतिहास में झूठे समाचार कबूतर के माध्यम से भेजकर मूर्ख बनाने के किस्से भी मिलते हैं। 70-80 के दशक में झूठे पत्र और उपहारों की पैकिंग के माध्यम से भी मूर्ख बनाया जाता था। जिनका जन्मदिन 1 अप्रैल होता वह तो अच्छा खासा हंसी का पात्र बनते। बहरहाल यह सब बीते जमाने की बातें लगने लगी हैं, क्योंकि अब तो वाकई किसी को किसी के लिए समय ही नहीं बचा है। व्यस्तता और समय की कमी ने मूर्ख दिवस की मानों उपयोगिता को ही कम करके रख दिया है। वैसे अब भी बच्चे एक दूसरे को मूर्ख बनाने का उपक्रम करते देखे जाते हैं। इसलिए मूर्ख बनाने की परंपरा तो चलती रहनी है, भले ही मनाने वालों की संख्या में कमी क्यों न आ गई हो।
आडवाणी का गांधीनगर अब क्या हो सकेगा शाह का
डॉ हिदायत अहमद खान
राजनीति में अवसरवादी और कुर्सी के प्रति आस्था रखने वालों के सामने पार्टी के प्रति समर्पण भाव रखने वाले नेताओं व कार्यकर्ताओं का रास्ता आसान नहीं होता। दरअसल ऐसे लोगों के लिए तो समर्पण का भाव शायर के उस इश्क के समान हो जाता है जिसके लिए उन्होंने पहले कभी कहा था कि ‘ये इश्क नहीं आसॉं बस इतना समझ लीजिए, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।’ अब अगर यकीन नहीं होता तो भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ और कर्मठ नेताओं की ओर नजर डाल लें, आपको भी यकीन हो जाएगा। दरअसल गुजरात की गांधीनगर लोकसभा सीट से भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के नामांकन दाखिल करने के साथ ही यह भी तय हो गया कि अब पार्टी को अपने संस्थापक सदस्य वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी जैसा सांसद भी संसद में नहीं चाहिए। लंबे समय से प्रधानमंत्री बनने की आस लिए आडवाणी राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति भी नहीं बन पाए और अब उनसे उनकी पसंदीदा सीट भी छीन ली गई। बहरहाल गांधीनगर लोकसभा सीट में पार्टी की जीत और हार अपनी जगह है, लेकिन जिस तरह से पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को एक धड़े ने किनारे लगाने और पूरी तरह शांत कर देने जैसा काम किया है, उसकी चीत्कारें लंबे समय तक राजनीतिक गलियारे में सुनाई देंगी। आखिर यह कैसे भुलाया जा सकता है कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने ही अपनी सूझ-बूझ और अथक परिश्रम के जरिए दो सीटों वाली भाजपा को पूर्ण बहुमत वाली सरकार में तब्दील किया। देश के बिखरे हुए बहुसंख्यकों को पार्टी के झंडेतले लाने और फिर उन्हें वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करने में क्या आडवाणी की रथयात्रा को कम करके आंका जा सकता है? आखिर यह कैसे संभव हो सकता है कि पार्टी का राजनीतिक सफर का इतिहास सुनहरे अक्षरों से लिखा जाए और उसमें अपना खून-पसीना सींच कर पार्टी को खड़ा करने वाले आडवाणी नजर नहीं आएं। यह सब संभव नहीं है, लेकिन विचारणीय हो गया है कि आखिर यह कैसे संभव हुआ कि पार्टी का कद बढ़ाने वाले नेताओं का कद बोना कर दिया जाता है और देश की जनता को बताया जाता है कि किस तरह से भाजपा में एक चाय बेचने वाला और एक पोस्टर और पर्चा चिपकाने वाला व्यक्ति भी शीर्ष पद पर पहुंच सकता है। गौर करें कि इस भव्य इमारत की मजबूती यदि है तो वो आडवाणी जैसे नींव के पत्थर बने नेताओं और पार्टी कार्यकर्ताओं की ही वजह से है, न कि कंगूरे बनने वाले चिकने-चुपड़े नेताओं की वजह से। ऐसे न जाने कितने समर्पित नेता अपमान और उपेक्षा के चलते पार्टी छोड़ चुके हैं, लेकिन आडवाणी तो इस सियासी युग के वाकई भीष्मपितामह निकले जो अपनों की ही बनाई नुकीले बाणों की सियासी सैया में धंसने को मजबूर हैं। यह वर्तमान राजनीति का वह अध्याय है जो कम लोग ही देखना और पढ़ना चाहेंगे, जबकि जो सामने दिख रहा है या दिखाया जा रहा है और जिसे लेकर सभी दिशाओं में शोर मचा हुआ है वह है गांधीनगर लोकसभा सीट से नामांकन दाखिल करने जाते भाजपा अध्यक्ष से लोकसभा प्रत्याशी बने अमित शाह। भारतीय राजनीति में ‘आधुनिक चाणक्य’ कहे जाने वाले भाजपा अध्यक्ष शाह ने नामांकन पत्र दाखिल करने से पहले कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए गर्व के साथ कहा कि ‘मैं यहां सन् 1982 में बूथ कार्यकर्ता के तौर पर नारनपुरा इलाके में पोस्टर और पर्चा चिपकाया करता था और आज पार्टी अध्यक्ष हूं।’ इस प्रकार शाह ने एक तीर से दो निशाने साधे हैं। पहला यह कि वो इसी जमीन से जुड़े पार्टी के उस आम कार्यकर्ता की ही तरह हैं जिसने अथक मेहनत करके यहां तक पहुंचा है। दूसरा यह कि जो लोग आडवाणी जैसे नेताओं को वरिष्ठ बताते हुए उनकी बराबरी पार्टी के किसी अन्य नेता से नहीं करना चाहते हैं अत: वो इसके बहाने यह भी जतला देना चाहते हैं कि वह भी कोई नए-नवेले नेता नहीं है, बल्कि उन्होंने भी 1982 से सक्रिय राजनीति में कदम रखा हुआ है। इसलिए अब आडवाणी की कमी किसी को खलनी नहीं चाहिए। इस प्रकार आडवाणी न सही शाह जैसे एक स्थापित और वरिष्ठ नेता से जो भी चाहे जुड़ सकता है और राजनीति के क्षेत्र में अपना भविष्य भी बना सकता है। इससे हटकर जो विरोध करते हैं और पार्टी के अंदर गुटबाजी करने वालों का हाल क्या होता है यह तो सभी देख ही चुके हैं। अमित शाह यह बताते हुए भी गौरवांवित होते दिखाई देते हैं कि उनके पास आज जो कुछ भी है वह पार्टी की ही देन है। संभवत: यहां वो भूल जाते हैं कि आडवाणी जैसे नेता भी पार्टी में ही हैं, जिन्होंने पार्टी से लेने की बजाय उसे मजबूत करने में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, लेकिन कभी उसका डिंडोरा नहीं पीटा। यह तो उनका भाग्य का लेखा ऐसा था कि सब कुछ होते हुए भी उनके हाथ सिफर आया, जबकि पहले कभी सिफर रहे लोगों के हाथ सत्ता रुपी बटेर भी लग गई। इसलिए आडवाणी समर्थक कह रहे हैं कि यह तो अपनी-अपनी किस्मत का लेखा है, जिसके तहत कोई स्थापित हो रहा है तो कोई स्थापित होते हुए भी हाशिये में जाने को मजबूर है। बहरहाल अमित शाह ने जिस तरह से चार किलोमीटर लंबा रोड शो किया और उनके साथ शिरोमणि अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल, एलजेपी के रामविलास पासवान और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे नजर आए तो यही संदेश गया कि यह भाजपा नहीं बल्कि एनडीए का चुनाव है, जिसमें सभी साथ-साथ हैं। इसका अर्थ यही हुआ कि प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के गुजरात के होने के बावजूद पार्टी गठबंधन को महत्व देती है और इसी के बल पर वह चुनाव जीतेगी। यहां यह रणनीति काम आ सकती है क्योंकि कोई कुछ भी क्यों न कहे, लेकिन मोदी कार्यकाल में जितने बगावती तेवर दिखाने वाले नेता रहे हैं वो इस सीट पर जरुर अपना दम-खम दिखाएंगे और येन-केन-प्रकारेण राजनीति के चाणक्य को धूल चटाने में कोई कसर भी बाकी नहीं रखेंगे। इसलिए कहना गलत नहीं होगा कि यह चुनाव वाकई अस्मिता बचाने वाला चुनाव हो गया है, जिसमें तमाम नेताओं की इज्जत दांव पर लग चुकी है। अब देखना यह होगा कि जनादेश किसके पक्ष में रहता है और किसे बुरी तरफ बेइज्जत किया जाता है। यह सब कुछ तो मतदाता के ही हाथ में है।
यह कैसी राजनीति……?
ओमप्रकाश मेहता
सेना-वैज्ञानिकों की उपलब्धि को अपने खाते में डालना कहाँ तक उचित……? हमारे मालवा क्षेत्र में एक बहुप्रचलित कहावत है- ‘‘घी सुधारे खीचड़ी, नाम बहू का होय’’। शायद उसी उक्ति को अब केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने आत्मसात कर लिया है, इसीलिए हमारी वायुसेना द्वारा पाक-अधीकृत कश्मीर के बालाकोट में 26 फरवरी को किए गए एयर स्ट्राईक और हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों द्वारा अपनी साहसी बुऋिमत्ता द्वारा बनाए गए व सफलतम मिसाईल मारक संयंत्र का प्रयोग प्रदर्शन करके दुनिया में भारत को गौरवान्वित करने व भारत को इस क्षेत्र में विश्व में चैथे स्थान पर स्थापित करने के करतबों को केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने अपनी उपलब्धि बताकर लोकसभा चुनाव में राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास किया जा रहा है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि यह अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत की बहुत बड़ी गौरव पूर्ण उपलब्धि है, इसके लिए डी.आर.डी.ओ. के सभी वैज्ञानिक बधाई के पात्र है, क्या ही अच्छा होता इस महान उपलब्धि को जगजाहिर करने का मौका डीआरडीओ के प्रमुख को मिलता, किंतु प्रधानमंत्री जी ने वैज्ञानिकों की यह महान उपलब्धि अपनी भाजपा सरकार के खातें में डालकर चुनाव के समय अपनी पार्टी को राजनीतिक लाभ दिलाने का प्रयास किया। वह भी ऐसे दौर में जब प्रधानमंत्री जी स्वयं चुनाव के प्रत्याशी है और भारतीय चुनाव संहिता के चलते वे बिना चुनाव आयोग की पूर्व अनुमति के देश को सम्बोधित नहीं कर सकते, क्या राजनीति के कथित ‘चाणक्य’ मोदी जी को इस वैधानिक बंधन का कतई ध्यान नहीं रहा और उन्होंने इस उपलब्धि को सार्वजनिक करने के लिए ‘राष्ट्र सम्बोधन’ का सहारा ले लिया। चुनाव आचार संहिता व आयोग के नियम कानून की उन्होंने उसी तरह उपेक्षा की जैसी कि अपनी पार्टी के बुजुर्गों व स्थापित राजनेताओं की टिकट वितरण में की।
……फिर जहां यह भी एक ध्यान देने वाला तथ्य है कि जब स्वयं सत्तारूढ़ दल के नेता व डीआरडीओ के पूर्व पदाधिकारी यह कह रहे है कि भारत ने यह उपलब्धि आज से सात साल पहले 2012 में ही हासिल कर ली थी, किंतु तत्कालीन कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री ने इसके परीक्षण की अनुमति नहीं दी थी, वरना आज जो भारत को विश्व में चैथा दर्जा हासिल हुआ है, वह सात साल पहले ही हासिल हो जाता? भाजपा के वरिष्ठ नेताओं और वैज्ञानिकों की यह बात सही हो भी सकती है, किंतु यहां फिर वही सवाल उठाया जा रहा है कि वर्तमान प्रधानमंत्री जी ने अपने पहले पांच साल के कार्यकाल में अन्तरीक्ष वैज्ञानिकों को यह परीक्षण करने की अनुमति क्यों नही दी? और इस परीक्षण के लिए चुनाव का समय ही क्यों चूना? भारतहितैषी और राष्ट्रभक्त प्रधानमंत्री जी चाहते तो 2014 में पद ग्रहण करते ही इस परीक्षण की अनुमति दे देते, तब संभव है हमारी सुरक्षा को लेकर उठाए जा रहे सवालों का जन्म ही नहीं होता?
……किंतु किया क्या जाए? देश में इन दिनों चुनावी माहौल के दौरान कांग्रेस व भाजपा के बीच ‘लोकलुभावन’ स्पद्र्धा जो चल रही है, कांग्रेस यदि सत्ता में आने के बाद देश के गरीबों को बहात्तर हजार रूपए वार्षिक सहायता (न्याय योजना) योजना लागू करने की बात कह रही है तो भाजपाई प्रधानमंत्री सेना और वैज्ञानिकों की करिश्माई उपलब्धियों को अपनी उपलब्धि बताकर चुनाव में ‘वाह-वाही’ लूटना चाहते है, अब इसे क्या नाम दिया जाए? अभी तो चुनावी बुखार दो माह चलेगा, देखते है, इस दौरान कौन-कौन से इलाज या औषधियाँ खोजी जाती है?
वैसे आजादी के बाद पहली बार देश में सत्तारूढ़ दल अपने जनहितैषि फैसलों और उपलब्धि के आधार पर चुनाव नहीं लड़ रहा है, आरोपित है कि पांच साल पहले (2014 में) चुनाव के पूर्व प्रधानमंत्री पद के भाजपाई उम्मीदवार नरेन्द्र भाई मोदी ने बहुत बढ़-चढ़कर करीब पांच हजार जन कल्याणकारी वादे किए थे, जिनमें से पिछले पांच सालों में पचास भी पूरे नहीं किए गए, इसी से देश का आम वोटर नाराज बताया जा रहा है, इसका अहसास प्रधानमंत्री व भाजपा को है, इसीलिए अब राष्ट्ररक्षा व अन्यों की उपलब्धियां अपने नाम कर राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास किया जा रहा है, जिसे देश का जागरूक व समझदार वोटर अच्छी तरह समझ रहा है। अब देखिए, चुनावी ऊँट किस करवट बैठता है।
साहित्य की उपादेयता
चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध
मनुष्य जिस समाज और जिस परिवेश में रहता है, उससे प्रभावित होता है। उससे सीखता है, समझता है और वैसा ही व्यवहार करता है। समाज के संपर्क में आ अच्छाइयों की सराहना करता है, दुखी जनों के प्रति संवेदनायें प्रकट करता है। जीवन संघर्ष में मनुष्य परिश्रम कर सफलता पाना चाहता है और आनन्द प्राप्ति की आकांक्षा से भावी जीवन के नित नये सपने देखता रहता है।
सतत एकरूपता के संघर्ष से ऊबकर वह कुछ नवलता चाहता है। जैसे रोज-रोज एक से भोजन से मन ऊब जाता है उसे नये स्वाद पाने की चाह रहती है और इसीलिये घरों में गृहणियां नित कुछ नये स्वाद का भोजन तैयार किया करती हैं, वैसे ही दैनिक जीवन में कुछ नया देखने और आनंद पाने को व्यक्ति घर से बाहर घूमने जाता है। नदी का किनारा, कोई बाग बगीचा, कोई सुन्दर दृश्य वाला स्थान या मन बहलाव का साधन उसे ताजगी देता है, स्फूर्ति देता है, थकान दूर करता है, नई प्रेरणा देता है तथा उसकी कार्यक्षमता को बढ़ाता है। इसी दृष्टि से आज पर्यटन का महत्व बढ़ चला है।
यदि व्यक्ति बाहर न जा सके तो उसे बाहर का वातावरण उसी के कक्ष में उपलब्ध हो सके इसी का प्रयास पुस्तकें करती हैं। साहित्यकारों के द्वारा विभिन्न रुचि के ललित साहित्य का सृजन इसी दृष्टि से किया जाता है। ज्ञानवर्धक पुस्तकों से भी नया ज्ञान और जीवन को नई दृष्टि मिलती है। आज सिनेमा, टीवी, रेडियो आदि का भी प्रचार इसी आनंद प्राप्ति के लिये बढ़ गया है। ये सभी पुस्तकों में प्रकाशित साहित्य की भांति ही व्यक्ति को सोचने, समझने, सीखने और मनोरंजन के लिये नये प्रसंग और स्थितियां प्रदान करते हैं।
साहित्यकार अपनी कल्पना से एक नये सुखद संसार का सृजन करता है, इसीलिये उस नये संसार में विचरण कर सुख की अनुभूति के लिये पुस्तकें, कविता, उपन्यास, नाटक, यात्रा वृतांत, निबंध, जीवन गाथायें, वार्तालाप आदि। अपनी रुचि के अनुसार किसी भी विधा में साहित्य रचा जाता है और पाठक अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार चुनकर पुस्तकों को पढ़ता है। सभी रचनाओं का उद्देश्य किन्तु पाठक को आनन्द देना, कोई नया संदेश देना, सोचने समझने को दिशा देना, मन मस्तिष्क को तृप्ति देना या उनका मनोरंजन कर कल्पना लोक की सैर करा प्रसन्नता प्रदान करना ही होता है। यह परिवर्तन कभी-कभी पाठक की जीवनधारा को बदल देने की भी क्षमता रखता है। इसीलिये सत्साहितय को मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ मित्र कहा जाता है और पुस्तकालयों व वाचनालयों को ज्ञान का कोषालय तथा जीवन का सृजनालय कहा जाता है। साहित्य समाज के सात्विक उत्थान, नैतिक जागरण, कल्याण तथा मनोरंजन का अनुपम साधन है। जो कुछ कठिन प्रयत्नों के बाद भी परिवेश में दुर्लभ होता है। वह मनवांछित वातावरण पुस्तकों के माध्यम से कल्पनालोक में अनायास ही पाठक को मिल जाता है, जिसके प्रकाश में अनेकों समस्यायें सरलता से सुलझाई जा सकती हैं। साहित्य की यही सबसे बड़ी उपदेयता है।
संकल्प का प्रभाव; विकल्प का अभाव……?
ओमप्रकाश मेहता
देश में चुनावी महासमर का शंखनाद हो चुका है। सत्तारूढ़ राजनीतिक दल और प्रतिपक्षी दल एक-दूसरे के सामने लामबंद होने लगे है, फिलहाल शब्दबाणों से संग्राम की शुरूआत हो चुकी है, सत्तारूढ़ दल ने जहां जीत के मंत्र के रूप में ‘संकल्प’ का चयन किया है तो प्रतिपक्षी दल ‘विकल्प’ के चक्रव्यूह में फंसे दिखाई दे रहे है। सत्तारूढ़ दल जहां अपने पांच वर्षिय शासनकाल की कथित उपलब्धियों को छोड़ भारत के सैन्य शौर्य को अपने दल की सरकार की उपलब्धि सिद्ध कर उसका राजनीतिक लाभ उठाने की जुगत में है तो राई की तरह बिखरा विपक्ष अपने स्तर पर ‘लघु छोंक’ लगाने के प्रयास कर रहा है, किंतु फिलहाल पूरा समर परिदृष्य कुछ भी भविष्य की संभावना को स्पष्ट नहीं कर रहा है, यद्यपि सत्तारूढ़ दल प्रतिपक्ष के बिखराव का पूरा राजनीतिक लाभ लेने और पुनः सत्ता हथियाने को बैचेन है, किंतु ‘सत्तावीरों’ के अंदरूनी भय और चुनाव सर्वेक्षणों के परिणामों ने देश के कर्णधारों के चेहरों पर भय व चिंता की लकीरों में ईजाफा ही किया है।
यद्यपि ऊपरी तौर पर इस महासमर में फिलहाल सत्तारूढ़ दल का पलड़ा भारी नजर आ रहा है, क्योंकि ‘जर-खरीद’ मीडिया इसी तरह के प्रचार में व्यस्त है, किंतु भाजपा व उसके संरक्षक संघ के कर्ता-धर्ता यह भली प्रकार से जानते है कि प्रधानमंत्री की दादागिरी भरी सनक से भाजपा के अंदर बगावत को जन्म दे दिया है, भाजपा के प्रमुख कर्णधारों द्वारा पार्टी के बुजुर्ग जन्मदाताओं की उपेक्षा व उनके साथ किए गए अपमान जनक व्यवहार से न सिर्फ भाजपा का मूल समर्थक वर्ग बल्कि सत्तारूढ़ दल की पीठ ठोंकने वाला बुद्धिजीवी वर्ग भी खुश नहीं है। चाहे भाजपा के कर्णधारों ने बुजुर्गों व उनके परिवारजनों की उपेक्षा किसी भी नीयत से की हो, किंतु सत्तारूढ़ क्षेत्र के साथ समूचे देश में संदेश यही जा रहा है कि ‘‘यह प्रधानमंत्री व पार्टी अध्यक्ष की दादागिरी का एक अंग है।’’ फिर यही भावना टिकट वितरण को लेकर भी भाजपा व उसके अनुषांगिक दलों में व्याप्त हो रही है, क्योंकि अब तक सक्रिय रहे पार्टी के जन्मदाता अटल बिहारी वाजपेयी के परिवारजनों व स्वयं लालकृष्ण आडवानी के साथ जो अशिष्टता व नाफरमानी की गई, उससे पूरा देश आश्चर्यचकित है, अटल जी की भानजी छत्तीसगढ़ नैत्री करूणा शुक्ला तो उपेक्षा से पीड़ित होकर पहले ही कांग्रेस में चली गई अब उनके भानजे ग्वालियरी अनूप मिश्रा भी अपनी पूर्व नियोजित उपेक्षा से पीड़ित होकर कांग्रेस का दरवाजा खटखटाने की तैयारी में है। वहीं तीन-तीन बार चुनाव हार चुकी महिला नैत्री स्मृति ईरानी को पुनः अमेठी से उम्मीदवार घोषित करने से राजनीतिक क्षेत्रों में विस्मय व्याप्त है। दो दिन में देश में पांच सौ संकल्प यात्राएं आयोजित करने वाली भाजपा के ‘बुजुर्ग उपेक्षा’ के संकल्प से पार्टी के अंदरूनी क्षेत्रों में बैचेनी है।
इस तरह एक ओर जहां देश का सत्ताधारी दल ‘संकल्प’ के दौर के प्रभाव से गुजर रहा है, वहीं प्रतिपक्षी दल ‘विकल्प’ के अभाव को लेकर परेशान है। क्योंकि स्वयं कांग्रेस व उसके साथी दल के नेता अंदरूनी तौर पर अपने राहुल गांधी को मोदी का विकल्प नहीं मानते। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, एक तो उसके पास बुजुर्ग व प्रधानमंत्री पद हेतु सक्षम नेताओं का अभाव है, दूसरी ओर कांग्रेस की अन्य प्रमुख क्षेत्रिय दलों के साथ पटरी नहीं बैठ रही, इसलिए सभी प्रतिपक्षी दल मोदी के खिलाफ एक जुट नहीं हो पा रहे है और यह तो दिन के उजाले की तरह साफ है कि जब तक देश के सभी प्रमुख प्रतिपक्षी दल मोदी के खिलाफ एकजुट नहीं होते तब तक मोदी को शिकस्त देना लगभग असंभव है, यद्यपि जहां तक कांग्रेस का सवाल है, उसमें प्रियंका की सक्रियता और राहुल की कुछ राजनीतिक ‘मैच्यूरिटी’ से फर्क तो पड़ा है और उसका असर भी बढ़ा है, किंतु इसका इतना प्रभाव नहीं पड़ा कि मायावती, ममता और अखिलेश यादव के दल कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार कर एक जुट हो जाए?
वैसे इसमें भी कोई दो राय नहीं कि फिलहाल आज के राजनीतिक परिदृष्य को देखकर मोदी जी के स्पष्ट बहुमत प्राप्त होने की संभावना व्यक्त नहीं की जा रही है, क्योंकि देश का जागरूक मतदाता फिलहाल किसी भी तरह के संकेत नहीं दे रहा है, इसीलिए राजनीतिक विश्लेषक ‘त्रिशंकु’ संसद की आशंका व्यक्त कर रहे है, किंतु यह भी सही है कि ‘‘प्रलोभन’’ की यह स्पद्र्धा राजनीति के ‘ऊँट’ को किस करवट बैठा दे, कुछ भी नहीं कहा जा सकता? इसीलिए फिलहाल देश का राजनीतिक भविष्य ‘कयासों’ के भंवर में डूबा नजर आ रहा है।
गरीबों की सुध लेना हंगामा बरपाने के बराबर?
डॉ हिदायत अहमद खान
पिछले लोकसभा चुनाव में विपक्ष में रहते हुए पुरजोर तरीके से भाजपा और उनके सहयोगियों ने देश के आमजन से वादा किया था कि उनकी सरकार बनते ही विदेश में जमा कालाधन लाकर देश की गरीबी मिटा दी जाएगी। दरअसल प्रत्येक नागरिक के खाते में 15-15 लाख रुपये जमा करवाने की बात सार्वजनिक तौर पर इस अंदाज में कही गई थी मानों उन्हें खजाने का पता चल चुका है बस जादुई चिराग रुपी सत्ता उनके हाथ में दे दी जाए। हिंदुस्तान में गरीब के लिए यह एक ऐसा सुनहरा सपना था, जिसके सच होने की कल्पना मात्र से दरिद्रता कोसों दूर भाग रही थी। इसलिए सपना दिखाने वालों के हाथ मजबूत करने में मतदाता ने भी कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। इसके चलते केंद्र में पूर्ण बहुमत के साथ एनडीए की मोदी सरकार ने पदार्पण किया, लेकिन यह क्या कि देखते ही देखते चुनावी वादे, चुनावी जुमलों में तब्दील हो गए और देश का नागरिक जो सपनों में खोया हुआ था उसकी जब तक नींद खुलती तब तक बहुत देर हो चुकी थी। दरअसल एक बार फिर देश चुनावी महासमर के मुहाने पर आ खड़ा हुआ है। आमजन को फिर वही वादों और सपनों से दो-चार होना है। अचानक एक रात में अमीर बनने का भाग्यलेखा हकीकत में कभी सच होते हुए तो हमने नहीं देखा, अलबत्ता शॉर्टकट अपनाने वालों को सीखचों के पीछे जाते हुए जरुर देखा है। अत: चुनावी वादा झूठ का पुलिंदा ही साबित हुआ। रही सही कसर तब पूरी हो गई जबकि बैंकों में जमा धन लेकर विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे लोग विदेश में जाकर जम गए। मतलब विदेश से कालाधन लाना तो दूर की बात देश का एक नंबर वाला धन भी लूट लिया गया। इसे लेकर प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस समेत अन्य विरोधियों ने मोदी सरकार को निशाने पर लेने का काम किया है। बात यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि जैसे को तैसा जवाब देने की गरज से कांग्रेस मुक्त भारत की बात करने वालों को उनके ही अंदाज में जवाब देने की ठान ली गई। इससे भी आगे बढ़ते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सरकार बनने पर अब गरीबों की सालाना आय 72 हजार रुपये करने का वादा कर दिया है। इससे भाजपा और उसके सहयोगी तिलमिलाए हुए हैं। एक तरह से यह योजना 25 करोड़ गरीब लोगों को साधने की है और दूसरी बात यह कि जो लोग पिछले आम चुनाव के दौरान भाजपा के वादे भुला चुके थे उन्हें उसकी याद दिलाना भी था। इसमें कांग्रेस सफल होती दिख रही है, इसलिए राहुल के बयान और उनकी योजना पर लगातार हमले हो रहे हैं। सवाल किए जा रहे हैं कि आखिर गरीबों को 72 हजार रुपये सालाना आय देने वाली राहुल गांधी की योजना पर काम कैसे किया जा सकता है, क्योंकि कुछ अर्थशास्त्रियों ने तो देश के खजाने पर भारी प्रभाव पड़ने जैसा खतरा बतला दिया है। अर्थशास्त्रीय आंकलन के मुताबिक इसकी सालाना लागत 3.6 लाख करोड़ रुपये बैठेगी, जो कि सरकारी खजाना खाली करने जैसी होगी। देश के पूर्व वित्तमंत्री और कांग्रेस नेता पी चिदंबरम का कहना है कि अन्य अनेक अर्थशास्त्रियों से भी इस विषय में संपर्क किया गया और उसके बाद कहा जा सकता है कि यह योजना लागू करना मुमकिन है और वह भी वित्तीय अनुशासन का पालन करते हुए। मतलब कहीं से कोई हवा-हवाई बातें नहीं की जा रही हैं, जिन्हें चुनाव के बाद जुमला साबित करने की जरुरत हो। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का कहना है कि कांग्रेस ‘न्याय योजना’ के तहत देश के 20 फीसदी सबसे गरीब परिवारों को सालाना 72 हजार रुपये प्रदान करेगी। इस योजना से सीधे तौर पर पांच करोड़ परिवार और 25 करोड़ लोग लाभान्वित होंगे। मौजूदा वक्त में देश की न्यूनतम आय रेखा 12 हजार रुपये मासिक है, ऐसे में जो व्यक्ति इस आय से कम में काम कर रहा है वह इस योजना का लाभ ले सकेगा। कहने का अर्थ यह हुआ कि यदि किसी की आय मासिक 6 हजार रुपये है तो उसकी आय में 6 हजार और जोड़कर उसे 12 हजार रुपये कर दिया जाएगा, इस प्रकार वह न्यूनतम आय की परिधि में आ जाएगा। यदि ऐसा होता है तो देश का गरीब वाकई लाभांवित होते हुए अपनी रोजमर्रा की जिंदगी को सही ढंग से बसर करने लायक हो जाएगा। इसके लिए गंभीरता से कार्य करने की आवश्यकता होगी, क्योंकि जो खर्च है वह कैसे पूरा होगा और किस तरह से सही लोगों तक मदद पहुंचाई जा सकेगी, इस पर भी विचार होना चाहिए। जहां तक राजनीतिक विरोध का सवाल है तो यही कहा जा सकता है कि जब-जब गरीब को लाभांवित करने की बात होती है, तमाम तरह के अड़ंगे लगा दिए जाते हैं, जबकि अमीर को और अमीर बनाने के लिए पिछले दरबाजे भी खोल दिए जाते हैं। इसके बाद वह बैंक लूटकर विदेश भागने में भी सफल हो जाता है। यह योजना जहां चुनावी गेम चेंजर बताई जा रही है वहीं यह भी बतलाना उचित होगा कि यह वाकई देश के गरीब को निकम्मा बनाने जैसी योजना नहीं है। गरीब को उसका अपना हक दिलवाने जैसी साबित हो सकती है। इसलिए इसका स्वागत किया जाना चाहिए। फिर भी चुनावी बेला है इसलिए क्या किया जाए क्योंकि यह मान लिया गया है कि गरीबों को लाभ पहुंचाना सही मायने में हंगामा बरपाने के बराबर है।
मध्यप्रदेश में वनों का प्रबंधन की दिशा
आजाद सिंह डबास
आज 21 मार्च को ’विश्व वानिकी दिवस’ है। यह दिन पूरे विश्व में वन संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति समस्त मानव जाति का ध्यान आकर्षित करता है जबकि म.प्र. का वन विभाग समाचार पत्रों में मात्र छोटा सा विज्ञापन जारी कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है। इस अवसर पर अगर प्रदेश के वनों के वर्तमान हालात पर नज़र डाली जाये तो यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि प्रदेश के वन दिनोदिन बिगड़ रहे हैं। वैसे तो प्रदेश के लगभग 30 प्रतिशत भू-भाग पर वन हैं लेकिन आज आधे से ज्यादा वन बिगड़े वन की श्रेणी में आ गये हैं। वनों को संरक्षित एवं सवंर्धित करने हेतु जो प्रयास होने चाहियें, विगत कई वर्षों से मध्यप्रदेश का वन विभाग इसकी ओर उतने प्रयास करता नहीं दिख रहा है। यह स्थिति प्रदेश के लिये ही नहीं अपितु भारत वर्ष के लिये भी चिंता का विषय है।
इसमें कोई दो मत नहीं कि प्रदेश के वनों पर अत्याधिक जैविक दबाव है। प्रदेश की 8 करोड आबादी में से लगभग 4 करोड़ लोग जलाऊ लकड़ी एवं पशुओं के चारे के लिये वनों पर आश्रित हैं। केन्द्र सरकार की बहुप्रचारित ’उज्जवला योजना’ भी स्थानीय आबादी विशेषकर आदिवासियों की इंधन की मांग की पूर्ति नहीं कर सकी है। ज्यादातर गरीब लोग गैस सिलेन्डर की रीफिलिंग कराने में असमर्थ होने से योजना कागजों में दम तोड़ रही है और इंधन की पूर्ति के लिये ज्यादातर आबादी पूर्ववत वनों पर आश्रित है। विगत 15 वर्षों में प्रदेश सरकार द्वारा ऐसी कोई योजना नहीं चलाई गई जिससे वनों के अंदर एवं वनों के आस-पास रह रही आबादी की जलाऊ लकड़ी की पूर्ति हो सके। प्रदेश के वन विभाग द्वारा ’ऊर्जा वन’ के नाम से वनक्षेत्रों में एक गैर-व्यवहारिक योजना जरूर चलाई गई जो तत्कालीन प्रधान मुख्य वन संरक्षक (हॉफ) केतकनीकी ज्ञान के अभाव एवं अपरिपक्वता के कारण एक वर्ष के अंदर ही विफल हो गई। योजना के अन्तर्गत जमकर भ्रष्टाचार हुआ और व्यय की गई लगभग 60 करोड़ राशि व्यर्थ हो गई। अगर वन विभाग इतनी राशि गरीब लोगों के गैस सिलेन्डर के रीफिलिंग में उपयोग करता तो इसके कही ज्यादा सार्थक परिणाम मिल सकते थे।
प्रदेश में जितनी मानव आबादी है, लगभग उतने ही मवेशी भी हैं। अभी तक की प्रदेश सरकारें पशुओं के लिये उन्नत चारा उपलब्ध कराने में भी सफल नहीं हो पाई हैं। वनों के अंदर एवं आस-पास रहने वाले लोग अपने पशुओं को जंगलों में चरने छोड़ देते हैं जिससे वनों का बहुत विनाश हो रहा है। वर्षों से हो रही अत्यधिक चराई से वनों में चराई हेतु उपयोगी घास अत्यंत कम हो गई है। अत्यधिक चराई के दबाव से वनों में लेन्टाना जैसी प्रजाति के फैलाव से एक ओर जहां वनों के पुर्नउत्पादन को बुरी तरह प्रभावित किया है वहीं दूसरी ओर पशुओं के लिये चारा भी समाप्त हो गया है। आज तक वन विभाग लेन्टाना उन्मूलन के लिये कोई व्यवस्थित योजना का क्रियान्वन नहीं कर सका है। कृषि एवं पशु पालन जैसे विभाग भी पशुओं के लिये चारा उपलब्ध कराने की कोई कारगर योजना क्रियान्वित नहीं कर पाये हैं जिससे वनों पर दबाव घटने के बजाय बढ़ रहा है।
एक सच्चाई यह भी है कि म.प्र. के वनों में अतिक्रमण लगातार बढ़ रहा है। इस सच्चाई से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि वर्ष 2006 में वन अधिकार अधिनियम के लागू होने से इस समस्या को बढ़ावा मिला है। इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि वरिष्ठ वन अधिकारियों एवं अधीनस्थ वन अमले को जिस संजीदगी के साथ इस अधिनियम के तहत वन अधिकार पत्र वितरण करने थे, उसमें कोताही बरती गई है। वन अधिकारियों के ऐसे रूख के कारण ही आज भी अधिनियम के तहत अमान्य दावों की समीक्षा की मांग बारम्बारउठ रही है। अतिक्रमण के साथ-साथ अवैध उत्खनन भी प्रदेश के वनों को बर्बाद कर रहा है। अवैध उत्खनन को रोकने के लिये भी प्रदेश का वन विभाग ठोस कार्रवाई न कर मात्र औपचारिकता निभा रहा है। ग्वालियर वन वृत्त के ग्वालियर एवं मुरैना वनमण्डल में हुये एवं हो रहे अवैध उत्खनन की जांच के लिये मेरे द्वारा विगत 7 वर्षों से हर स्तर पर प्रयास किये गये लेकिन नतीजा सिफर ही रहा, जो सिद्ध करता है कि वन विभाग अवैध उत्खनन की रोकथाम के प्रति कितना गंभीर है।
विगत कुछ वर्षों से वन क्षेत्रों में अग्नि प्रकरणों की घटना भी दिन दूनी-रात चौगुनी गति से बढ़ रही हैं जिसके नियंत्रण के लिये कोई कार्य योजना नहीं है। प्रदेश के ज्यादातर वनक्षेत्र अवैध कटाई से ग्रसित हैं। प्रदेश के गठन को60 वर्ष से ज्यादा की अवधि बीत जाने के बाद भी वन विभाग उच्च गुणवत्ता के पौधे तैयार करने की ऐसी योजना नहीं बना पाया है जो अच्छे परिणाम दे सके। विगत 60 वर्षों से विभाग द्वारा जो रोपण किये गये हैं, वे भी अपेक्षित सफलता नहीं प्राप्त कर सके हैं। विभाग आज भी सफल रोपण करने में असमर्थ है। हाँ, यह अवश्य है कि पूर्व में जहां 4-5 हजार रूपये प्रति हेक्टेयर के मान से वृक्षारोपण होता था, वह राशि आज 50 हजार से लाख रूपये हो चुकी है विशेषकर कैम्पा मद से कराये गये रोपणों में। विभागीय अधिकारियों का पूरा ध्यान सीमेन्ट के पोल एवं बारबड वायर खरीदने में ही लगा रहता है जिनसे जंगलों के अंदर सीमेन्ट कांक्रीट की चार दीवारियां खड़ी कर दी गई हैं। वनों के बाहर जेड-4 क्षेत्रों में वृक्षारोपण कराने में भी वन विभाग असफल रहा है।
90 के दशक में जंगलों को बचाने के लिये स्थानीय लोगों के सहयोग से जो संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रम शुरू किया गया था, वह भी दम तोड़ रहा है। कहने को प्रदेश में 15 हजार से ज्यादा वन समितियां गठित हैं लेकिन वे ज्यादातर कागजों तक ही सीमित हैं। वन समितियों के सुदृढ़ीकरण का कोई कार्यक्रम वर्तमान में नजर नहीं आ रहा है। वरिष्ठ वन अधिकारियों का ज्यादातर ध्यान अपनी पदोन्नति एवं ट्रान्सफर/पोस्टिंग में ही लगा रहता है। जब वरिष्ठ अधिकारियों का ये हाल है तब निचले अमले की तो बात करना ही बेमानी है। वन विभाग में 30 वर्ष कार्य करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि विभाग को अपनी कार्यप्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। वन समितियों के सुदृढ़ीकरण के बिना वनों का संरक्षण एवं संवर्धन असंभव है।
लेखक सिस्टम परिवर्तन अभियान के अध्यक्ष हैं।
चुनाव के दौरान ही क्यों उठता है आय से अधिक संपत्ति का मामला
डॉ हिदायत अहमद खान
यह तो तय हो चुका है कि वर्तमान राजनीतिक दौर समाजसेवा, जनकल्याण और राष्ट्रभक्ति के नारे लगाने वाला है, जहां हकीकत में कुर्सी प्राप्त करना अधिकांश राजनीतिक पार्टियों और नेताओं का ध्येय बन चुका है। इसलिए जैसे ही चुनाव का समय करीब आता है अधिकांश नेता एक-दूसरे पर इस कदर कीचढ़ उछालने लग जाते हैं कि एहसास होने लगता है कि साफ-सुथरी छवि वाले नेताओं का देश में टोटा आन पड़ा है। नेता खुद एक-दूसरे को अपराधी घोषित करते, सजाएं सुनाते प्रतीत होते हैं, जिससे आमजन को सोचना पड़ जाता है कि क्या यही लोग अब देश में बचे हैं जिनके हाथों में राष्ट्र की कमान सौंपी जानी है। आखिर ये वही लोग तो हैं जो सत्ता में रहते हुए अपने प्रतिद्वंदी को जेल भेजने की बात करते हैं और विपक्ष में आने के बाद खुद को कानून के शिकंजे से बचाने की जुगत भिढ़ाते भी दिखाई दे जाते हैं। विचारणीय है कि इस तरह की मुहिम चलाने वाले कथित नेता आखिर देश में बदलाव का दौर कैसे ला सकते हैं, क्योंकि इनकी मानसिकता तो खुद चोर या महाचोर, डकैत या महाडकैत वाली जो हो चुकी होती है। इनसे जनकल्याण की बातें करना बेमानी लगता है, क्योंकि इन्हें अपने अलावा किसी और की परवाह होती ही नहीं है। खुद का दामन साफ-पाक बताने वाले ये कथित नेता दूसरों पर इस कदर उंगली उठाते हैं कि जनता भी सोचने पर मजबूर हो जाती है कि दाल में कुछ तो काला है, वर्ना ये इस कदर क्योंकर शोर मचाते दिखाई देते। फिलहाल देश में लोकसभा चुनाव का बिगुल बजाया जा चुका है और ऐसे में सत्ताधारी भाजपा ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर आय से अधिक संपत्ति का गंभीर आरोप लगाते हुए अनेक सवाल दाग दिए हैं। बकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बताया जा रहा है कि राहुल ने 2004 में अपना नामांकन दाखिल करते हुए 55 लाख की संपत्ति होना बताया था, फिर 2014 में उनकी संपत्ति बढ़कर 9 करोड़ की कैसे हो गई? इस संबंध में भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा फायर राउंड खेलने की भूमिका में आगे आते हैं और कहते हैं कि ‘आखिर संपत्ति में यह बड़ा इजाफा कैसे हो गया, जबकि उनकी कमाई का एकमात्र साधन सांसदी ही है और वह कोई डॉक्टर या वकील जैसे प्रोफेशन में भी नहीं हैं।’ इसके साथ ही उन्होंने जो बातें और तथ्य रखे उससे ऐसा प्रतीत हुआ मानों वो किसी बड़े राज से पर्दा उठाने जा रहे हैं। ऐसा करके वो गांधी परिवार को ही जेल भिजवाने वाले हैं, लेकिन सवाल यही है कि साल 2017 में जो आय से अधिक संपत्ति बनाने का मामला अदालत तक पहुंचा था, उसका क्या हुआ? यही नहीं नोटबंदी के बाद जो सत्ता पक्ष के नेताओं और कुछ सहयोगियों पर अकूत संपत्ति बनाने के आरोप लगे थे, उनका भी तो आज तक कुछ होता हुआ दिखाई नहीं दिया है। उसमें न जाने कितने नेताओं और मंत्रियों के नाम सामने आए थे, लेकिन सब कुछ चलता है वाली परिपाटी के तहत कहीं कुछ नहीं हुआ। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने देश के कुछ सांसदों और विधायकों की संपत्ति में पांच सौ फीसदी तक के इजाफे पर सवाल उठाए थे और संबंधितों से पूछा था कि वो यह बताएं कि उनकी आय में इतनी तेजी से बढ़ोत्तरी क्या बिजनेस से हुई है? इसके बाद भी कोर्ट ने फुलस्टाप नहीं लगाया था बल्कि उसने आगे कहा था कि यदि हॉं तो फिर सवाल उठता है कि सांसद या विधायक रहते हुए वे कोई बिजनेस कैसे कर सकते हैं? यह एक गंभीर प्रश्न है, जिस पर समय रहते जवाब आना चाहिए था, लेकिन चोर-चोर मौसेरे भाई वाली कहावत सदा से चरितार्थ होती आई है, इसलिए अदालतें गंभीरता दिखती रहीं और सियासी खेमा अपनी ही चाल में मस्त नजर आया। तब अदालत ने तो यहां तक कह दिया था कि अब वक्त आ गया है कि भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ कैसे जांच हो और तेजी से फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई हो। मतलब साफ है कि अदालत भी इस मामले को गंभीरता से लेती और जल्द से जल्द कार्रवाई करने के मूड में है, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति कुछ खास होने नहीं देना चाहती है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से सालों पहले एनएन वोरा की रिपोर्ट पर क्या कुछ हुआ इसकी भी जानकारी मांगी थी, क्योंकि इतने सालों बाद भी तो समस्या ज्यों की त्यों नजर आती है। इसमें शक नहीं कि जनता को पता होना चाहिए कि नेताओं की आय क्या है और वह किसी तरह से छुपी नहीं होनी चाहिए। ऐसा होने के बाद संभवत: चुनाव में नेताओं की संपत्ति जैसे विवाद उछाले नहीं जा सकेंगे और कोई नेता छल-कपट के चलते किसी पर कीचढ़ उछालने वाली राजनीति भी नहीं कर पाएगा।
बुजुर्गों को दिखाया अँगूठा; समझो भाग्य रूठा…..?
ओमप्रकाश मेहता
यह सामाजिक कहावत मैं कह नहीं रहा, दोहरा रहा हूँ, और वह भी देश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के मौजूदा परिदृष्य को देखकर। यह कतई गलत नहीं है कि नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से कार्यभार ग्रहण करें, किंतु इसमें एक अहम् भूमिका ‘ससम्मान’ की होती है, किंतु आज से पांच साल पहले जिस तरह पुरानी पीढ़ी से इस राजनीतिक दल ने कार्यभार ग्रहण किया, उसे कम से कम ‘ससम्मान’ तो नहीं ही कहा जा सकता। तभी मुझे मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी द्वारा इक्कीस साल पहले मेरे निवास पर कहा गया वह ‘ब्रह्मवाक्य’ याद आया था, जिसमें मोदी जी ने कहा था- ‘‘शिखर पर पहुंचने के बाद उस सीढ़ी को तोड़ कर फैंक देना चाहिये, जिसके माध्यम से शिखर पर पहुंचते है’’ और आज भाजपा द्वारा आगामी लोकसभा के टिकट वितरण की घोषणा के बाद पुनः मुझे मोदी जी का वहीं ‘‘ब्रह्मवाक्य’’ याद आया। क्योंकि भाजपा के वरिष्ठतम नेता डाॅ. मुरली मोनहर जोशी की पारम्परिक वाराणसी सीट पर मोदी जी द्वारा कब्जा करने के बाद अब भाजपा के पितृपुरूष लालकृष्ण आडवानी की लोकसभा गांधी नगर सीट भाजपाध्यक्ष अमित शाह को सौंप दी गई। इस तरह पार्टी के जन्मदाता आडवानी, जोशी को भारतीय राजनीतिक मंच से गायब ही कर दिया गया। अब पार्टी के जन्मदाता इन पितृपुरूषों की दुविधा यह है कि ये वर्तमान चलन को अपनाकर शत्रुघ्न सिन्हा की तरह किसी दूसरे दल का तो दामन थाम नहीं सकते, क्योंकि इन्होंने अपना पूरा जीवन कुछ सिद्धांतों को सम्बल बनाकर जीया है, इसलिए अब इनके शेष जीवन में घुटन के अलावा कुछ भी शेष नही बचा है। नाम न उजागर करने की शर्त पर एक वरिष्ठ राजनेता का कहना है कि- पार्टी के प्रमुख पितृपुरूष स्व. अटल जी अच्छा ही हुआ यह दिन देखने के पहले चले गए, वर्ना उन्हें भी ये ही दिन देखने को मजबूर होना पड़ता, वैसे उन्होंने लगभग नौ साल एकाकी घुटन भरी जिंदगी बिस्तर व कुर्सी पर गुजार कर यह बखूबी महसूस कर लिया था, तब उनकी खोज-खबर लेने वाला कोई भाजपा दिग्गज उनके आसपास नही था।
खैर, इस मौजूदा परिदृष्य से तो कोई भी बेखबर नहीं है, किंतु यहां एक और कुछ अजीब नजर आता है, यद्यपि भाजपा के पास ‘‘पूज्यनीय’’ विभूतियों की कोई कमी नहीं है, फिर वे चाहे संघ से हो या विहिप से? किंतु इसके बावजूद भाजपा ने कांग्रेस की उन विभूतियों को अपनाना शुरू कर दिया, जिन्होंने देश की आजादी के संघर्ष के दौरान देश को आजाद कराने में अहम् भूमिका निभाई थी, जिनमें महात्मा गांधी, वल्ल्भ भाई पटेल, लाल बहादूर शास्त्री, नेताजी सुभाष चंद्र बोस आदि प्रमुख है, यद्यपि यह माना जा रहा कि भाजपा के सर्वे सर्वा गुजराती नेताओं द्वारा गांधी-पटेल को क्षेत्रवाद के कारण महत्व दिया गया, किंतु नेताजी सुभाष तथा लाल बहादूर जी तो गुजराती नही थे? यद्यपि यह कोई गलत नहीं है, क्योंकि ये नेता हमारी आजादी की नींव के पत्थर है, किंतु भाजपाईयों के इस ‘आदरप्रेम’ पर उस समय काफी दुःख भी होता है जब प्रधानमंत्री की वाराणसी में एक कांग्रेस नैत्री द्वारा लाल बहादूर शास्त्री की प्रतिमा पर पुष्पमाला पहनाए जाने के बाद अति उत्साही भाजपा नेताओं द्वारा उस मूर्ति को गंगाजल से स्नान कराकर उसे कथित रूप से पवित्र करने का मंजर सामने आता है; अब क्या हमारी आजादी के ये सूत्रधार नेता भाजपा के ही होकर रह गए? थोड़ी देर के लिए यदि इस परिदृष्य को चुनावी माहौल से जोड़कर इस घटना की उपेक्षा भी कर दी जाए, तो क्या चुनावी माहौल में भी ऐसे कृत्य जायज कहे जा सकते है?
अब किया क्या जाए? आधुनिक राजनीति का चलन ही ऐसा होता जा रहा है तो कोई क्या करें? अब तो येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतकर सत्ता प्राप्त करना ही आधुनिक राजनीति का मूल उद्देश्य बन गया। जनसेवा, राष्ट्रभक्ति, जनकल्याण ये सब सिर्फ दिखावे के नारे रह गए है, और वही यदि देश में सत्तारूढ़ दल कर रहा है तो क्या गलत है?
किंतु यहां फिर वही बुजुर्ग व पार्टी के पूर्व कर्णधारों की उपेक्षा का मसला आम बुद्धिजीवी को दिल-दिमाग को काफी कष्ट पहुंचाता है, क्या गुजर रही उन बूढ़े व असहाय कर्णधारों के दिल-दिमाग पर? लेकिन यह सोचता कौन है? किसे फुर्सत है?
…..लेकिन मेरे विचार से वर्तमान परिदृष्य में थोड़ा सुधार लाने और अहम् के दौर से गुजर रहे, हमारे देश के सर्वेसर्वा नेतागण अपनी गलती सुधारने के लिए भाजपाध्यक्ष अमित शाह और आडवानी जी के संसदीय दायित्वों की अदला-बदली तो कर ही सकते थे, अर्थात् यदि आडवानी जी की गांधी नगर सीट छीनकर अमित शाह को दी गई है तो अमित शाह की राज्यसभा सीट ससम्मान आडवानी जी को दी जा सकती है, तब न तो बुजुर्ग नेता आडवानी जी को पीड़ा होती और न अमित भाई की महत्वाकांक्षा की पूर्ति में कोई कमी आती, अभी भी समय है, बुजुर्ग नेता का सम्मान बरकरार रखने के लिए यह तो किया ही जा सकता है, वरना मोदी-शाह के बाद की पीढ़ी भी इन कर्णधारों से यही सीखेगी और आगे जाकर वह भी इनके साथ ऐसा ही सलूक करेगी?
बच्चों में क्षय रोग और उसका निदान
डॉ. विजय छजलानी
(विश्व क्षय रोग दिवस 24 मार्च पर विशेष) क्षय रोग (ट्यूबरकुलोसिस) यह रोग मायको बैक्टेरियम ट्यूबरकुलोसिस नाम के बैक्टेरिया से होता है। प्रतिवर्ष लगभग 30 लाख व्यक्ति इस बीमारी से मर जाते हैं। इसमें से अधिकांश मौतें विकासशील देशों में होती है। विष्व में प्रतिवर्ष लगभग 80 लाख नए क्षय रोगी बढ़ रहे हैं जिसमें 95 प्रतिषत विकासषील देषों में है। किसी भी समय विष्व में लगभग डेढ़ से दो करोड़ क्षय रोगी रहते हैं, जिसमें आधे रोगियों की खंखार में क्षय के बैक्टेरिया उपस्थित रहते हैं।
भारत की लगभग 40 प्रतिषत आबादी में क्षय के बैक्टेरिया उपस्थित है और प्रतिवर्ष 5 लाख मौतें क्षय रोग से होती है। हर मिनिट में कहीं न कहीं कोई क्षय से मर रहा है। एक क्षय रोगी जिसकी खंखार में क्षय के बैक्टेरिया मौजूद है, हर वर्ष 10 से 15 नये व्यक्तियों में बीमारी फैला रहा है।
जब देश में क्षय रोग इतनी भयानकता के साथ उपस्थित है, तो बच्चे भी उससे नहीं बच सकते। क्षय रोगी जब खांसता है या छींकता हैं तो हजारों की संख्या में क्षय बैक्टेरिया बाहर निकलते है। इनकी बड़ी-बड़ी बूंदें तो जमीन पर गिर जाती है , किन्तु सूक्ष्म बूंदे हमवा में तैरती रहती है। क्षय रोगी अधिकतर गरीब, अषिक्षित होते है, जहां एक छोटे से बंद कमरे में पूरा परिवार रहता है। बार-बार खांसते रहने से कमरे में बैक्टेरिया की संख्या बढ़ जाती है , जो श्वास द्वारा अन्य परिवारजनों के शरीर में फेफड़ों में और अन्य अंगों में पहुंच जाते है। बच्चे जो कि कमजोर रहते है, तुरंत इनकी चपेट में आ जाते हैं। बच्चों में फेफडों में पहुंचकर यह एक रिएक्षन पैदा करता है। 8-10 सप्ताह में एक चक्र पूरा कर बैक्टेरिया सुसुप्त अवस्था में पहुँच जाता है। इस दौरान बच्चों को साधारण बुखार, खांसी , सर्दी, जुकाम इत्यादि हो सकता है, जो कि बिना इलाज के भी ठीक हो जाता है, किन्तु कुछ बच्चे, जो कुपोषित है, अन्य किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त है या उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर है। ऐसे बच्चे को इलाज की सख्त आवष्यकता होती है। क्षय रोग फेफड़ो के अतिरिक्त किसी भी अंग को प्रभावित कर सकता है। बच्चों में इसका निदान बहुत मुष्किल है। केवल समझदार विषेषज्ञ चिकित्सक ही इसका समय पर निदान कर सकते है।
बच्चों में अगर निम्न में से कोई लक्षम हो तो क्षय रोग हो सकता है –
बच्चे का वजन नहीं बढ़ना या स्थिर रहना या थोड़ा वजन घट जाना।
कमजोर महसूस करना।
बच्चे को बार-बार बुखार आना। बुखार के साथ आंखे लाल हो जाना।
बुखार के साथ आँखे लाल हो जाना।
खांसी (साँस) होना और वजन नहीं बढ़ना।
अचानक सीने में दर्द और बुखार आना।
पेट में दर्द और पेट फूल जाना। पेट में धीरे-धीरे बढ़ती हुई गठान।
चलने पर पैर में लगडापन अथवा जोडो में सूजन आना अथवा गले में सूजन, गठान बढ़ जाना।
चमडी पर घाव हो जाना , पानी का रिसना।
बच्चा अचानक चिड़चिड़ा हो जाए, साथ में बुखार उल्टी और सिरदर्द हो।
बड़े बच्चों को खांसी , बलगम के साथ सीने में दर्द, बुखार और वजन घटना।
ऐसा बच्चा , जो खसरा (मीजल्स) कुंबर खासी (व्हुपिंग कफ) या गले में टांसिल की बीमारी ठीक हो जाने पर भी पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं हो।
बच्चे को पेषाब में कोई भी तकलीफ नहीं हो, फिर भी पेषाब में पस अथवा ब्लड आना।
उपरोक्त कोई भी लक्षण होने पर विषेषज्ञ चिकित्सक की सलाह लेवें।
लेखक जिला क्षय अधिकारी है।
‘चाय’ जैसा होगा ‘चैकीदार’ का जादू ?
ओमप्रकाश मेहता
देश के आजाद होने के बाद शायद पहली बार देश के सत्तासीन सियासतदार आज तीन मुद्राओं में देश की जनता के सामने है, सत्ता में वे ‘राजा’ अपने दल में वे ‘सिपाही’ और वोट की सियासत में ‘चैकीदार’ ….और यह ‘चैकीदार’ की पदवी उन्हें किसी शौर्य या उपलब्धि के कारण नहीं, बल्कि देश के प्रधान चैकीदार की कृपा से निःशुल्क प्राप्त हुई है। अब जो राज्य सरकारों की नौकरी में ‘वास्तविक चैकीदार’ है, वह सोच नहीं पा रहा है कि वह क्या करें? अपना पदनाम बदल ले या अपने पदनाम के अधिकार की लड़ाई न्यायालय में लड़े? खैर राज्य सरकारों के सेवकों में सबसे गरीब व अल्पवेतन वाला शख्स ‘चैकीदार’ होता है, इसलिए वह महंगी न्यायिक लड़ाई तो नहीं लड़ सकता, किंतु उसे यह डर अवश्य है कि नकली चैकीदार कही असली चैकीदार पदनाम को बदनाम न कर दें?
वास्तव में ‘चैकीदार’ पद पर जबरन कब्जा करने वाले प्रथम शख्स हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी है, जिन्होंने आज से तीन साल पहले अपने आपको ‘चैकीदार’ बताया था, किंतु जब उनके कार्यकाल में प्रतिपक्षी दल कांग्रेस ने कथित राफैल घोटाले के बाद ‘चैकीदार’ पदनाम के साथ ‘चोर’ का विशेषण लगा दिया, जब जिद्दी व अपनी धुन के धनी प्रधानमंत्री जी ने इसी पदनाम को आधार बनाकर अगला लोकसभा चुनाव फतह करने की ठान ली और फिर क्या था, अपने नेता वाला पदनाम पूरे देश के भाजपाईयों का पर्याय हो गया और सभी ने अपने मूलनाम के आगे पद्मश्री या पद्मविभूषण की तरह ‘चैकीदार’ लिख लिया, प्रधानमंत्री के बाद इसकी शुरूआत केन्द्रीय मंत्रियों ने की और अब पूरे देश के भाजपाईयों ने।
….पर, अब अहम् सवाल यह है कि पांच साल पहले 2014 के लोकसभा चुनाव के समय तो मोदी जी ने अपने आपको ‘चाय बैचने वाला’ बताकर वोट बटौरे थे, फिर उस समय देश का आवाम् राजनीति में बरसों से सक्रिय नेताओं के घिसे-पिछे चेहरों को देखकर भी थक चुका था, इसलिए जब एक कथित आदर्श राज्य गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी का नया चेहरा प्रधानमंत्री के बतौर ‘धूमकेतु’ की तरह सामने लाया गया तो देश की जनता ने उन्हें हाथों-हाथ स्वीकार कर लिया और फलतः देश मोदीमय हो गया, क्योंकि मोदी जी के चुनावी वादे भी जनता की दुःखती रग पर हाथ रखने वाले थे, और इसी कारण मोदी जी उस समय प्रचण्ड बहुमत वाली सरकार कायम करने में सफलत रहे। किंतु इन पांच सालों में भारतीय राजनीति की गंगा में काफी पानी बह चुका है, देश का आम वोटर आज 2014 से भी अधिक खराब स्थिति में अपना जीवन यापन करने को मजबूर है, सपनों के सौदागर मोदी जी ने जनता को दिखाए गए सपनों में से एक भी सपने को साकार नहीं किया, उल्टे नोटबंदी व जीएसटी के माध्यम से लोगों को पीड़ा ही पहुंचाई, इसलिए अब देश के आम वोटर का मोदी जी के प्रति विश्वास डगमगाया नजर आ रहा है, फिर जनता के ‘मन की यह बात’ किसी से छुपी भी नहीं है, स्वयं मोदी व भाजपा के बड़े से लेकर छोटे नेता सब यह जानते है, इसीलिए मोदी से लेकर अदने से कार्यकर्ता तक के मन में भय समाहित है, जो भाजपा नेताओं की मुखाकृतियों में नजर आने लगा है।
संभवतः इसीलिए अब देश के आम वोटर को फिर से शब्दों व भाषणों की भूल-भूलैया के चक्रव्यूह में फंसाकर अपनी राजनीतिक स्वार्थ सिद्धी की तैयारी की जा रही है कभी सैना के शौर्य को अपने खाते में डालकर राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति करने की असफल कौशिश की जा रही है तो कभी ‘चैकीदार’ बनकर। अब सबसे बड़ा सवाल इस ‘चैकीदार’ के अधिकारों व कर्तव्यों को लेकर उठाया जा रहा है, देश का जो धन है वह तो चंद राजनेताओं के कृपा पात्र शख्स विदेश ले गए और वहां की बैंकों में जमा करा दिया, और जहां तक सरकार के पैसे का सवाल है, उसके लिए तो स्वयं सरकार रिजर्व बैंक से पैसा मांग रही है, देशका अवाम् वैसे ही गरीब व दो समय की रोट के लिए मोहताज है, तो फिर आखिर ये कथित ‘चैकीदा’ किसके व कौन से धन की रक्षा करेंगे? जहां तक जनता के अधिकारों की रक्षा का सवाल है, उनका तो पहले ही सत्ता ने अपहरण कर लिया है, तो फिर आखिर चैकीदारी किसकी व किसलिए होगी? हाँ, यह अवश्य है कि ‘चैकीदार’ यदि फिर से सत्ता दिला दे तो यह ‘शुभ’ होगा, वर्मा जो भाग्य में लिखा है, वह तो होकर ही रहेगा, उसे कोई भी रोक नही पाएगा।
भारत महिलाओं को सशक्त किये बिना आगे नही बढ़ सकता
एड. आराधना भार्गव
भारत की जनसंख्या में महिलाओं की हिस्सेदारी 48.5 प्रतिशत है। भारत में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने अपनी सरकार बनने पर संसद में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का वादा किया है। ओडिशा में बीजूु जनता दल लोकसभा चुनाव में 33 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं को टिकिट देगें, वही त्रिणमूल कांगे्रस ने 41 प्रतिशत सीटो पर महिला उम्मीद्वारों की सूची जारी की है। वामपंथी एवं समाजवादियों से उम्मीद है कि वे 50 प्रतिशत आरक्षण महिलाओं को लोकसभा में देंगे। भारत में निचले सदन में 12.6 प्रतिशत महिलाऐं हैं, संसद में महिलाओं की कुल संख्या वैश्विक औसत का आधा है, संसद में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व दुनिया में चिंता का विषय है और भारत की स्थिति बहुत खराब है। अगर हम देखें नेपाल में 32.7, अफगानिस्तान में 27.5, ईराक में 25.2, अमेरिका में 23.5, पकिस्तान में 20.2, साउदी अरब में 19.9, और भारत में 12.6 प्रतिशत महिलाऐं है। भारत की 543 सीटो में से 66 महिलाऐं संासद में है, संसद के निचले सदन में महिला प्रतिनिधियों वाले 193 देशों की सूची में भारत 149 वें स्थान पर है। पकिस्तान भारत से 48 पायदान ऊपर है।
हमारे देश में लड़कियों के लिये पहला स्कूल 1848 में खुला, जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ उस समय मात्र 8 प्रतिशत महिलाऐं साक्षर थी आज आंकड़ा बढ़कर 65 प्रतिशत हो गया है। जिस दुनिया में शिक्षा के दरवाजे लड़कियों के लिए बन्द रहे हों, उनका काम सिर्फ चूल्हा, चैका और बच्चे पैदा करना रहा हो वहाँ बराबरी आने में वक्त तो लगेगा। आज भारत देश की बेडियाँ देश की जीडीपी में अपना 43 प्रतिशत योगदान दे रही है, यह बहुत बडी उपलब्धी है। यह जानते समझते हुए भी कि उनके साथ घर, समाज और देश में दोयम दर्जे का व्यवाहार किया जाता है। भारत में महिलाओं को पुरूषों के मुकाबले 19 प्रतिशत कम वेतन मिलता है, महिला को 196.3 प्रतिशत और पुरूष को 242.49 प्रतिशत वेतन मिलता है यह बात मास्टर सेलरी इन्डेक्स के अभी हुए सर्वे से सामने आया है। पिछले साल वल्र्ड इकोनाॅमिक फोरम की रिपोर्ट कहती है कि पूरी दुनिया में औरतों को मर्दो के मुकाबले 43 प्रतिशत कम पैसे मिलते है। विषम परिस्थितियों में भी महिलाओं ने देश एवं दुनिया को यह संदेश दिया है कि वे दुनिया का हर काम विशेष कौशल एवं चतुराई के साथ कर सकती है, ऐसा कोई काम नही है जो महिलाऐं नही कर सकती, उसके बावजूद भी संसद में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व का एक ही कारण समझ में आता है वह है पितृसत्ता, हमारी सरकारें आज भी पितृसत्ता से उभर नही पाई है।
संसद में सांसद के वेतन भत्ते बढ़ोतरी पर देश को पता भी नही चलता और बिल पारित हो जाता है, लेकिन महिला आरक्षण की बात आते ही लोकसभा में हंगामा शुरू हो जाता है। संसद और विधान सभा में महिलाओं के लिए आरक्षण न होना, महिलाओं को टिकिट देने के लिए राजनैतिक दलों के बीच इच्छाशक्ति न होना, महिलाओं के बीच चुनावी राजनीति के बारे में जागरूकता की कमी और परिवार का समर्थन न मिल पाना भी बड़ा कारण है। पितृसत्ता के चलते महिलाओं को यह कहकर भी डराया जाता है कि राजनीति गंदी चीज है राजनीति में महिलाओं को नही आना चाहिए, राजनीति करने वाली महिलाऐं अच्छी नही होती इस तरह के जुमले आये दिन समाज में सुनने के लिये मिलते है। देश के हर क्षेत्र में महिलाओं ने अपना परचम फैलाया है और आने वाले समय में राजनीति में भी वे अपना परचम फैलाऐंगी, देश के कर्णधारों से निवेदन है कि लोकसभा में अपने वादे के मुताबिक महिलाओं को टिकिट देकर संसद में पहुँचाकर उनके हुनर को राजनीति में देखने का अवसर प्रदान करेंगे, आनेवाला वक्त महिलाओं और देश के लिए और सुन्दर होगा।
लोकसभा चुनाव मशीन मीडिया और मनी पावर
सनत जैन
2019 में जो लोकसभा चुनाव होने जा रहा हैं। यह चुनाव पूर्ण रूप से मनी, मशीन और मीडिया को समर्पित है। इसमें सबसे आगे भारतीय जनता पार्टी है। भारतीय चुनाव के इतिहास में कभी भी मीडिया जिस तरह वर्तमान में है, वैसा कभी नहीं रहा। लोकसभा चुनाव में मीडिया वही दिखा रहा है ,जो सत्तारूढ़ दल दिखाना चाहता है। सत्तारूढ़ दल के इशारे पर विपक्ष से मीडिया सवाल कर रहा है। जबकि इसके पूर्व मीडिया हमेशा सरकार और सत्तारूढ़ दल को कटघरे में रखता था। पहली बार विपक्ष को सत्तारूढ़ दल के प्रश्नो का जवाब देना पड़ रहा है। मीडिया की भूमिका हमेशा विपक्ष की होती थी। मीडिया अपने आप को हमेशा निष्पक्ष रखने के लिए तथ्यों के आधार पर जानकारी जुटाता था। उन पर सवाल पूछता था| किंतु यह सब इस लोकसभा चुनाव के पूर्व देखने को नहीं मिल रहा है। 2019 के लोकसभा चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रिंट, मीडिया और सोशल मीडिया एक ही तरफ भागता हुआ दिख रहा है। इस दौर में व्हाट्सएप के माध्यम से मतदाताओं तक जो जानकारी भेजी जा रही है । उसका मुकाबला करना भी किसी भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं हो पा रहा है। सत्तारूढ़ दल और सोशल मीडिया कैंपेन में जो आक्रमक चुनाव प्रचार भाजपा आईटी मीडिया द्वारा किया जा रहा है, उसके आगे सारे विपक्षी दल धराशाही होते नजर आ रहे हैं। जिसके कारण मतदाता लोकसभा चुनाव में काफी कन्फ्यूजन में है। मतदाता का एक वर्ग मीडिया के प्रभाव से प्रभावित होकर आक्रमक भी है। इसलिए 2019 का लोकसभा चुनाव ऐतिहासिक चुनाव होगा।
मनी के मामले में भी 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी अन्य राजनीतिक दलों के मुकाबले 10 से 20 गुना ज्यादा भारी है। संसाधनों की कोई कमी भारतीय जनता पार्टी के पास नहीं है। उसे कारपोरेट से सबसे ज्यादा चंदा भी मिला है। सरकार में होने से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 2019 के चुनाव में सत्तारूढ़ दल को लाभ भी मिला है। वहीं कारपोरेट जगत से अन्य राजनीतिक दलों को चंदा ना के बराबर मिला है। जिसके कारण मनी का प्रभाव इस चुनाव में निश्चित रूप से बीजेपी के पक्ष में जा रहा है। मनी पावर में कोई भी राजनीतिक दल भाजपा का मुकाबला नहीं कर पा रहा है।
मशीन चाहे ईवीएम की हो अथवा इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मशीनरी हो या विभिन्न संचार माध्यम हो इसमें भी भारतीय जनता पार्टी सबसे आगे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका अमित शाह की थी। जिनके नेतृत्व में पहली बार मनी मशीन और मीडिया का इस्तेमाल लोकसभा चुनाव के लिए हुआ था। 2019 के चुनाव में अब एक नई चीज भी भारतीय जनता पार्टी के साथ जुड़ गई है। 2019 के चुनाव में केंद्र की सत्ता में भाजपा स्पष्ट बहुमत के साथ हैं। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष भी भारतीय जनता पार्टी की विचार धारा के हैं। प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में संवैधानिक संस्थाओं के प्रमुखों की नियुक्तियां होने से कहा जा सकता है कि कहीं ना कहीं वह भी भाजपा के प्रभाव मंडल में शामिल हैं । 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी हर तरीके से अपने विरोधियों के मुकाबले कई गुना ज्यादा मजबूत हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की करिश्माई नेतृत्व से वशीभूत होकर इस चुनाव में वह सब होता हुआ दिख रहा है। जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक आव्हान पर अब सारे देश भर में चौकीदार बनने की होड़ लग गई है। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने चौकीदार चोर है, का नारा बुलंद किया था। उसके जवाब में भारतीय जनता पार्टी ने मियां की जूती मियां के सिर की तर्ज पर कांग्रेस पर जवाबी हमला करते हुए नरेंद्र मोदी के चारों ओर चौकीदारों का सशक्त घेरा तैयार कर दिया है, जो 2019 के लोकसभा चुनाव में अहम भूमिका का निर्वाह करेगा। केंद्रीय मंत्री से लेकर भाजपा के प्रादेशिक नेता और कार्यकर्ता अपने आप को चौकीदार कहलाने की मुहिम चला रहे हैं। कार्यकर्ताओं ने तो अपने हाथ में चौकीदार लिखवाना भी शुरू कर दिया है। लोकसभा चुनाव के दौरान सबसे निराशाजनक भूमिका मीडिया की है। मीडिया में सभी वर्गो को समान अवसर नहीं मिल रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के ऐंकर एजेंडा सेट करते हैं। उसी एजेन्डे पर ही सवाल जवाब होते हैं। जिसके कारण अब बुनियादी सवाल भी चुनाव से गायब हो गये हैं।
ऐसी स्थिति में समझा जा सकता है कि 2019 का लोकसभा चुनाव मनी, मशीन मीडिया के साथ साथ सत्ता का बल लेकर लड़ा जा रहा है। इसके चुनाव परिणाम क्या होंगे, इसकी उत्सुकता सभी को है।
सबका साथ सबका विकास के असल हामी थे मनोहर पर्रिकर
डॉ हिदायत अहमद खान
यह तो दुनिया जानती है कि जो इस दुनिया में आया है उसे एक दिन जाना ही जाना है, लेकिन कुछ लोगों का जाना वाकई दु:खदायी होता है। ऐसे वो लोग होते हैं जो अपने लिए कम और देश व समाज के लिए ज्यादा जीते हैं। ऐसी ही महान हस्तियों में मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर का नाम भी शुमार किया जाता है। दरअसल कैंसर जैसी बीमारी से जूझते हुए भी जिस जिम्मेदारी और निष्ठा के साथ गोवा के मुख्यमंत्री पद को उन्होंने संभाला वह वाकई उन्हें क्रांतिकारी योद्धा के तौर पर स्थापित करता है। इसी के साथ देश के पूर्व रक्षामंत्री पर्रिकर को अंतिम विदाई देने लोगों का जो हुजूम उमड़ा उसने बतला दिया कि वो वाकई जननेता थे, जिन्हें सभी का आशीर्वाद मिला हुआ था। संघ से जुड़े होने के साथ वो सिद्धांतवादी तो थे ही, इसके साथ ही उनकी सादगी उन्हें अन्य राजनीतिज्ञों से जुदा करने वाली थी। भ्रष्टाचार के खिलाफ सदा खड़े रहने वाले पर्रिकर बौद्धिक प्रतिभा के धनी थे। उनके विचार और कार्य अन्य राजनीतिज्ञों से उन्हें जुदा करता था। कुल मिलाकर मनोहर पर्रिकर एक ऐसी शख्सियत थे जो उन्हें राजनीतिक गलियारे में कुशल रणनीतिकार के तौर पर भी स्थापित करती थी। दूसरे राजनीतिज्ञों की चालों को पहले ही भांप लेने का माददा उनमें जबरदस्त था। ऐसे में चाहकर भी उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।
उनका समर्पण भाव पार्टी के प्रति कुछ इस कदर था कि उन्हें भाजपा का पर्यायवाची भी कहा जाता था। इसे यूं कह लें कि गोवा में जैसे-जैसे पर्रिकर का कद बढ़ा वैसे-वैसे भाजपा का दायरा भी बढ़ता चला गया। भारतीय राजनीतिक इतिहास के पन्नों में पर्रिकर इसलिए भी अमिट छाप छोड़ते हैं क्योंकि उन्होंने अपने दम से भाजपा को गोवा में स्थापित करने जैसा अहम कार्य किया। आखिर यह कैसे भुलाया जा सकता है कि गोवा में 1989 में जब भाजपा ने शुरुआत की तो उस समय पार्टी के महज 4,000 सदस्य थे, लेकिन पर्रिकर की सक्रियता ने उसी भाजपा को करीब 4.2 लाख सदस्य दिए। यह इसलिए बड़ी बात है क्योंकि गोवा की कुल आबादी का यह चौथाई हिस्सा ठहरता है। यह काम साधारण राजनीतिज्ञ तो कतई नहीं कर सकता था और न ही कोई अतिवादी ही ऐसा करके दिखला सकता था। यह पर्रिकर जैसे आमजन के चहेते नेता से ही संभव हो सकता था।
सोशल इंजिनियरिंग के माहिर पर्रिकर ने यह काम चुटकी बजाने वाले जादू के जरिए पूर्ण कर दिया हो ऐसा नहीं है, बल्कि जाति और धर्म से ऊपर उठकर विकास की जो गाथा उन्होंने लिखी उसके सभी कायल रहे हैं। इस प्रकार राजनीतिक समीकरण बैठाते हुए भी पर्रिकर सदा व्यावहारिक बने रहे। उन्होंने न तो कोई चीज जबरन थोपने का काम किया और न ही अनावश्यक किसी वर्ग या संप्रदाय विशेष को परेशानी में ही पड़ने दिया। बदलते समीकरण और परिस्थितियों के अनुकूल निर्णय लेने की क्षमता ने उन्हें जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई। यही वजह थी कि पिछले विधानसभा चुनाव में जहां कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी वहीं उनके इरादों को पहले से भांप चुके पर्रिकर ने अन्य दलों व निर्दलीय विधायकों को मिलाकर अपने नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनाकर सियासी धुरंधरों को पटखनी देने का जो अनूठा उदाहरण पेश किया वह भारतीय राजनीति में मील का पत्थर साबित हो गया है।
अद्भुत प्रतिभा के धनी पर्रिकर ने अपनी राजनीतिक जमावट के बल पर समाज को लाभांवित करने का जो उदाहरण पेश किया उससे पूरे राज्य में भाजपा स्थापित हुई। उन्होंने अपने ही ढंग से अल्पसंख्यकों, जनजातीय समुदाय के लोगों और अन्य पिछड़ा वर्ग को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया। यहां वर्ष 2012 के राज्य विधानसभा चुनाव याद आते हैं जबकि पार्टी को अपने दम पर 40 सदस्यों वाली विधानसभा में 21 सीटों के साथ बहुमत मिला था और इसमें करीब एक तिहाई विधायक अल्पसंख्यक समुदाय से थे। यह पर्रिकर जैसा नेता ही कर सकता था। यह किसी अन्य के बूते की बात भी नहीं थी।
बहरहाल ऐसे महान नेता पर्रिकर का जन्म आजादी बाद 13 दिसंबर 1955 को हुआ, लेकिन उनकी सोच और विचारधारा वाकई क्रांतिकारियों जैसे ही रहे। उन्होंने सन् १९७८ में आईआईटी मुम्बई से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। भारतीय राजनीति में किसी राज्य के मुख्यमंत्री बनने वाले वह पहले नेता हैं जिन्होंने आईआईटी से स्नातक किया। भाजपा से गोवा के मुख्यमंत्री बनने वाले पहले नेता भी वही हैं। दरअसल 1994 में उन्हें गोवा की द्वितीय व्यवस्थापिका के लिए चुना गया था। भारत के रक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने देश की सीमाओं और सुरक्षा के बारे में बारीकी से जाना। वे उत्तर प्रदेश से राज्य सभा सांसद भी रहे। सही मायने में वो तो ‘सबका साथ, सबका विकास’ के असल हामी थे, जिनके जाने के बाद राजनीतिक क्षितिज में जो शून्यता आई है वह भर पाना किसी के बूते की बात नहीं। उनके जनहित वाले कार्य और लोगों को जोड़े रखने वाली कार्यशैली हमेशा उनकी याद दिलाएगी।
साबरमती से प्रियंका ने उठाए वाजिब सवाल
प्रभुनाथ शुक्ल
गुजरात के साबरमती आश्रम में हुई कांग्रेस कार्य समिति की मीटिंग में कांग्रेस में एक नयी उम्मीद दिखी। पार्टी ने गांधी को याद करते हुए नया संकल्प लिया। सम्मेलन की खास वजह प्रियंका गांधी रही जिन्होंने नयी जिम्मेदारी मिलने के बाद सधे हुए अंदाज में जमींनी मसले उठाकर एक अलग तरह का विचार रखा। यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी से इस तरह की उम्मीद राजनीतिक विश्लेषक नहीं कर सकते थे, लेकिन उन्होंने बेहतर विचार रख अपनी क्षमता की तस्वीर साफ कर दिया। उनकी राजनीतिक शैली राहुल गांधी से काफी अलग दिखी। सात मिनट के भाषण में कहीं से भी तल्खी नजर नहीं आयी। शब्दों के मिठास में आज लोगों के सरोकार से जुड़े मसलों को अहमियत दिया। सीडब्लूसी में अपने को वह पार्टी कार्यकर्ताओं से अलग थलग नहीं रखा। मां सोनिया गांधी और भाई राहुल से हटकर कार्यकर्ताओं के बीच अधिक समय जाया किया। गांधी आश्रम से उन्होंने बेहद नपे तुले शब्दों में पीएम नरेंद्र मोदी का नाम लिए बगैर सीधा निशाना साधा। राहुल गांधी की परंपरा बन गए चैकीदार चोर है और राफेल का मसला छुआ तक नहीं। उन्होंने साफ कहा कि अभी आपके सामने बहुत बातें होंगी लेकिन आप को सावधान रहने की जरुरत है।
साबरमती आश्रम से प्रियंका गांधी ने भीड़ को संबोधित करते हुए साफ तौर पर कहां कि यह चुनाव आपका भविष्य और देश की दिशा तय करेगा। आप सरकार से सवाल पूछिए। अपने मताधिकार का प्रयोग सोच समझ कर कीजिए। चुनाव में फालतू मसले नहीं उठने चाहिए। आम आदमी के सरोकार से जुड़े जमींनी मुद्दे होने चाहिए। देश में बेगारी, किसान, महिला सुरक्षा के साथ अन्य मुद्दे शामिल होने चाहिए। निश्चित रुप से साबरती आश्रम से उन्होंने बड़ी बात रखी। लेकिन 17 वीं लोकसभा के महासमर से जमींनी जमींनी सवाल गायब हैं। टीवी डिबेट का रुख बेहद केंद्रीय हो गया चला है। मीडिया की भूमिका सुनिश्चित विचारधारा की तरफ बढ़ती दिखती है। चुनावी फैसले आने से पूर्व ही चैनलों पर सरकारें बना दी जा रही हैं। एंकर पत्रकार की भूमिका में कम पार्टी प्रवक्ता में अधिक दिखते हैं। बस अगर दिखती है तो गला फाड़ कर स्पर्धा। लोकतांत्रिक व्यव्स्था में अभिव्यक्ति का यह सबसे विभत्स चेहरा है। यह वजह है कि राजनीति और मीडिया से वैचारिक मुद्दे गायब हैं। बेकार की बहसों को दिखाया जा रहा है। जनता का ध्यान मुख्य मसलों से भटकाया जा रहा है।
सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों में सिर्फ सत्ता की होड़मची है। जाति, धर्म की बात कर वोटरों को भावनात्मक मसलों से जोड़ा जा रहा है। चुनाव में युवा वोटरों की संख्या सबसे अधिक है। आठ करोड़ से अधिक नए मतदाता जुड़े हैं। लेकिन युवाओं की बात राजनीतिक दलों के एजेंड़े से गायब है। भारत में बेरोजगारी का ग्राफ दुनिया में सबसे नीचले स्तर पर पहुंच गया है। युवा रोजी-रोटी तलाश में निराश है। शहरों में पशुओं को चराने के लिए शिक्षित युवाओं के उपयोग का सरकारें वेशर्म प्लान तैयार कर रही हैं। युवाओं के लिए रोजगार की बात उठाने के बजाय पकौड़े की राजनीति की जा रही है। महिलाओं की सुरक्षा, भूखमरी, प्रतिभाओं का पलायन, किसानों की आत्महत्याएं और बीमार उद्योग, स्वास्थ्य सुविधाएं, दिमागी बुखार से मौतें मसला नहीं बन रहीं। चुनाव भारत में हो रहा है लेकिन इसकी गूंज पाकिस्तान में है। यहां के नेताओं की स्पीच को पाकिस्तानी मीडिया अपनी डिबेट का हिस्सा बना रहा है। जरा सोचिए इससे बड़ी शर्म की बात हमारे राजनीति के लिए और क्या हो सकती है। कोई सेना के शौर्य पर राजनीति कर रहा है तो कोई आतंकियों के लिए जी जैसी आदर्श शब्दावली का उपयोग करता दिखता है। सेना की वर्दी पहन प्रचार किया जा रहा है। राजनीतिक इस्तहारों में सेना का उपयोग किया जा रहा। पुलवामा, अभिनंद और एयर स्टाइक को राजनीति का हिस्सा बना दिया गया है। राष्टवाद की आड़ में अवाम को भावनात्मक रुप से प्रभावित करने की कोशिश हो रही है। जबकि 1965 में पूर्व पीएम लालबहादुर शास्त्री ने चीन के खिलाफ युद्ध लड़ा। इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कराया। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भी पोखरण परीक्षण किया। उन्हीं से पंजाब से आतंकवाद का सफाया किया। वह खुद आतंकवाद का शिकार बनी। क्या यह उपलब्धियां नहीं थीं। यह क्या एयर और सर्जिकल स्टाइक से कम हैं। कांग्रेस राज में इसकी किसी को भनक तक नहीं लगी। क्योंकि यह सुरक्षा और सेना से जुटे मसले हैं। जिसका अधिकार सिर्फ सेना को है। लेकिन अब उसकी उपलब्धियों का राजनीतिक इस्तेमाल भी होने लगा है। बदली भूमिका में आज की सेना का शौर्य भी राजनीति का विषय बन गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनमत एक संवैधानिक और स्वस्थ परंपरा है। दुनिया में जहां भी यह स्वस्थ अधिकार कायम हैं, वहां लोकतंत्र बेहद मजबूत और सुदृढ़ है। वैचारिक रुप से स्वस्थ लोकतंत्र में अच्छे विचारों का विशेष महत्व है। आम चुनाव सरकारों के कामकाज का विश्लेषण भी होता है। लोग अपनी पसंद की सरकार के लिए मतदान करते हैं। भारत दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र है। देश की जनता 17 वीं लोकसभा का चुनाव करने जा रही है। लेकिन तथ्यहींन और भावनात्मक मुद्दे उठाकर वोट हासिल करने में राजनैतिक दल जुटे हैं। भारत के आम चुनाव में पाकिस्तान और आतंकवाद छाया है। भाजपा जहां राष्टवाद जैसे भावनात्मक मसले उठाकर वोट बैंक को मजबूत करना चाहती है। वहीं कांग्रेस राफेल, किसान, आतंकी सम्मान में जी लगा महासमर फतह करना चाहती है।
सोशलमीडिया चुनावों में बेहद अहम भूमिका निभाने जा रहा है। दलीय समर्थक सोशलमीडिया के प्लेटफार्म पर पूरी तरह सक्रिय हो गए हैं। सभी राजनैतिक दल और राजनेता इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। पीएम मोदी अब खुद ब्लाग पर आ गए हैं। सोशलमीडिया पर निष्पक्ष और तार्किक बहस के बजाय केंद्रीय विचारधारा का युद्ध चल रहा है। राजनीतिक से जुड़े दल एक दूसरे को कोंसने में लगे हैं। जिसकी वजह से लोकतंत्र में वौचारिकता का सीधा अभाव दिखता है। लोकतंत्र में चुनाव अहम होते हैं। जनता सरकारों का चुनाव करती है। लेकिन आज की राजनीति में राजनीतिक दल अपना दृष्टिकोण रखेन के बजाय एक दूसरे के कपड़े उतारने में लगे हैं। किसी भी राजनीतिक दल के पास देश की वर्तमान समस्या को कोई हल नहीं दिखता है। बेगारी दूर करने के लिए किसके पास क्या नीतियां है। कश्मीर पर उनके पास क्या सुझाव है। सेना की शहादत पर विराम कैसे लगाया जाए। नक्सलवाद की समस्या का जमींनी हल क्या होगा। समाज में महिलाओं की सुरक्षा कैसे हो। आबो हवा में बढ़ते प्रदूषण पर कैसे रोक लगायी जाय। सांप्रदायिक हिंसा, क्षेत्र और भाषावाद की नफरत कैसे दूर की जाय। आरक्षण के जरिए प्रतिभाओं के हनन को रोकने के लिए बीच का रास्ता क्या बने जैसे मसलों पर राजनीतिक दलों का कोई दृष्टिकोंण नहीं दिखता है।
भाजपा और कांग्रेस सिर्फ वोटबैंक की रोटी सेंकने में लगी हैं। हमारे जवान खुले आम आतंकवाद का शिकार बन रहे हैं। नक्सलवाद, प्राकृतिक आमदा, एवलांच, बारुदी सुरंग विस्फोट में हजारों जवान अपनी जान गवांते हैं। लेकिन उनकी सुरक्षा की कोई ठोस नीतियां हमारे पास नहीं हैं। आतंकवाद और नक्सलवाद की वजह से बेमतलब जवान मर रहे हैं। यह सब बातें चुनावी मसले नहीं बनते। यह टीवी बहस का मसला नहीं बनती। मसला बनते हैं तो राहुल गांधी ने आतंकी को जी से संबोधित किया। देश को जाति, धर्म, भाषा में बांट कर राजनीति और सत्ता की घिनौनी साजिश रची जा रही है। जिसमें भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दल भी इसमें शामिल हैं, जबकि इनकी जिम्मेदारी क्षेत्रिय दलों से कहीं अधिक है। वोटबैंक और सत्ता दोनों दलों की मजबूरी बन गयी है। दोनों में वैचारिकता खत्म हो चली है। भाजपा राष्टवादी विचारधारा की खोल तो कांग्रेस सेक्युलरवाद का नगाड़ा पीटती है। जबकि दोनों की जमींनी सच्चाई कुछ और है। दोनों का मुख्य लक्ष्य सिर्फ सत्ता है।
उमर-महबूबा का ‘जमात’ वाला प्रेस
योगेश कुमार गोयल
आतंकवाद पर नकेल कसने के मकसद से केन्द्र सरकार द्वारा घाटी में अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा छीनने के बाद जिस प्रकार अलगाववादी संगठन जमात-ए-इस्लामी पर आतंकवाद निरोधक कानून के तहत 5 साल का प्रतिबंध लगाया गया है, उसका हर ओर स्वागत होना चाहिए था लेकिन अगर महबूबा मुफ्ती या उमर अब्दुल्ला सरीखे जम्मू कश्मीर के बड़े नेता इस फैसले का विरोध करते हुए बेसुरा राग अलाप रहे हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं हैं। आश्चर्य इस बात को लेकर है कि एक ओर जहां चौतरफा दबाव के बाद पाकिस्तान अपने वहां के ऐसे ही कुछ संगठनों पर प्रतिबंध लगाने पर विवश हुआ है, वहीं हमारे यहां ऐसे किसी संगठन पर प्रतिबंध लगने पर हमारी ही धरती पर पलने वाले कुछ तत्व इस प्रकार की विरोध की राजनीति कर रहे हैं। दरअसल अलगाववादियों की भाषा बोलते रहे इन लोगों की फितरत ही कुछ ऐसी है कि जब ये सत्ता में होते हैं तो इनके सुर कुछ और होते हैं और सत्ता से बाहर होते ही ये अलगाववादियों की भाषा बोलने लगते हैं। घाटी में आतंक का पर्याय बने पत्थरबाजों के पक्ष में आवाज बुलंद करना, अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा वापस लिए जाने पर उसका विरोध करना और अब जमात-ए-इस्लामी सरीखे अलगावादी संगठन पर प्रतिबंध लगाए जाने पर उसकी मुखालफत करना, यही इनकी राजनीति का वास्तविक घृणित चेहरा है।
जमात-ए-इस्लामी पर पहले दो बार प्रतिबंध लगाया जा चुका है। पहली बार 1975 में जम्मू कश्मीर सरकार द्वारा इस पर दो साल का प्रतिबंध लगाया गया था और दूसरी बार केन्द्र सरकार द्वारा 1990 में इसे प्रतिबंधित किया गया था, जो दिसम्बर 1993 तक जारी रहा। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि 1975 में जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगाने वाले कोई और नहीं बल्कि उमर अब्दुल्ला के दादा शेख अब्दुल्ला थे जबकि 1990 में जब इस संगठन पर प्रतिबंध लगा, तब केन्द्र सरकार में गृहमंत्री महबूबा के पिता मुफ्ती मोहम्मदसईद थे। ऐसे में उमर अब्दुल्ला तथा महबूबा द्वारा सरकार के इस संगठन का पुरजोर विरोध करना बचकाना ही लगता है। हालांकि आज घाटी में जो हालात हैं, ऐसे में जरूरत इस बात की है कि महबूबा हों या उमर, वे घाटी के भटके हुए नौजवानों को सही राह दिखाकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के गंभीर प्रयास करें किन्तु ये जिस प्रकार अपने सियासी फायदे के लिए आतंकवाद और अलगाववाद से जुड़े तत्वों का समर्थन कर नौजवानों के मनोमस्तिष्क में भारत विरोधी जहर भरते रहे हैं, ऐसे में समय की मांग यही है कि घाटी में अमन-चैन की बहाली के लिए भविष्य में कोई भी कठोर फैसले लेते समय ऐसे स्वार्थी सत्तालोलुप नेताओं को पूरी तरह दरकिनार किया जाए।
जिस संगठन पर प्रतिबंध लगाया गया है, उस पर अक्सर आरोप लगते रहे हैं कि यह राज्य में अलगाववादी विचारधारा और आतंकवादी मानसिकता के प्रसार के लिए जिम्मेदार रहा है। यह ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ की तरह का ऐसा संगठन है, जिसका प्रमुख उद्देश्य राजनीति में भागीदारी करते हुए राज्य में इस्लामी शासन की स्थापना करना माना जाता है। यह घाटी में आतंकी घटनाओं के लिए जिम्मेदार रहा है और अलगाववादी व आतंकवादी तत्वों का वैचारिक समर्थन और उनकी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में उनकी हरसंभव मदद करता रहा है। इस संगठन की करतूतों का काला चिट्ठा ऐसा है, जिससे यह आईने की तरह साफ हो जाता है कि यह किस प्रकार घाटी के युवाओं को इस्लाम के नाम पर भड़काकर उन्हें ‘जेहाद’ के नाम पर अपने अलगाववादी मंसूबों के लिए इस्तेमाल करता रहा है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि किस प्रकार यह बेरोजगार युवाओं के हाथों में बंदूकें थमाकर उन्हें घाटी में खूनखराबे के लिए उकसाता रहा है किन्तु दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में जमात-ए-इस्लामी जैसे अलगाववादी संगठन दशकों से इसी प्रकार राजनीतिक छत्रछाया में फलते-फूलते हुए हमारे अमन-चैन के दुश्मन बने रहते हैं और हम कुछ नहीं कर पाते।
जमात-ए-इस्लामी है क्या और कब तथा कैसे इसका जन्म हुआ, यह भी जान लें। एक इस्लामी धर्मशास्त्री मौलाना अबुलअलामौदूदी द्वारा इस्लाम की विचारधारा को लेकर काम करने वाले एक संगठन ‘जमात-ए-इस्लामी’ का गठन वर्ष 1941 में किया गया था। देश की आजादी के बाद यह जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान और जमात-ए-इस्लामी हिंद में विभाजित हो गया। जमात-ए-इस्लामी हिंद पर अब तक राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को लेकर कोई आरोप नहीं है और कहा जाता है कि यह देश में स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण वेलफेयर कार्य करता रहा है। राजनीतिक विचारधारा में मतभेद के चलते 1953 में जमात-ए-इस्लामी हिंद से अलग होकर एक संगठन बना ‘जमात-ए-इस्लामी (जम्मू कश्मीर)’, जिसने अपना अलग संविधान बनाया और जिसकी घाटी की राजनीति अहम भूमिका रही है।
ओडिशा में महिलाओं को महत्व
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने घोषणा की है कि वे इस लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के कुल उम्मीदवारों में 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं को देंगे। महिलाओं को 33 प्रतिशत सीटें विधानसभाओं और लोकसभा में देने का विधेयक पिछले 25 साल से अधर में लटका हुआ है लेकिन किसी पार्टी में हिम्मत नहीं है कि वह एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दें। मैंने तो कुछ साल पहले देश के राजनीतिक दलों से आग्रह किया था वे अपनी पार्टी के 33 प्रतिशत पद भी महिला नेताओं को दे दें। यदि महिलाएं नेतृत्व वर्ग में आगे होंगी तो देश की राजनीति में गुणात्मक सुधार होगा और हमारे पड़ौसी देशों को भी प्रेरणा मिलेगी। अभी तो हमारी विधान सभाओं और संसद में 8-10 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं होती ही नहीं हैं। भारत से ज्यादा अच्छा अनुपात तो इस मामले में अफगानिस्तान का है। अब नवीन पटनायक ओडिशा की 21 सीटों में से एक तिहाई सीटों पर महिला उम्मीदवार खड़े करेंगे। जाहिर है कि अन्य दल इन सीटों पर पुरुष उम्मीदवार भी खड़े करेंगे। ओडिशा के इस चुनाव पर पूरे देश की नजरें गड़ी रहेंगी। देश के 90 करोड़ मतदाताओं में 49 प्रतिशत महिलाएं हैं और अब उनमें से 65 प्रतिशत महिलाएं मतदान करती हैं। कई राज्यों में पुरुषों से ज्यादा महिलाओं ने मतदान किया है। इधर कई राज्यों ने अपनी पंचायतो में महिलाओं को 50 प्रतिशत तक प्रतिनिधित्व दे दिया है। यदि भारत की विधानसभाओं और संसद में महिलाओं का अनुपात बढ़ेगा तो जाहिर है कि मंत्रिमंडलों में भी उनकी संख्या बढ़ेगी। तब इंदिरा गांधी की तरह कई महिलाएं प्रधानमंत्री बनने की होड़ में रहेंगी और सुचेता कृपालानी, नंदिनी सत्पथी, वसुंधरा राजे, सुषमा स्वराज, उमा भारती, महबूबा मुफ्ती, ममता बेनर्जी, मायावती और जयललिता की तरह दर्जनों महिलाएं भारत के कई प्रांतों में मुख्यमंत्री का पद सुशोभित करेंगी। देश की महिला मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने के लिए भाजपा ने उज्जवला-जैसी योजनाएं चलाईं और कांग्रेस भी उन्हें लंबे-चौड़े आश्वासन दे रही है लेकिन इन पार्टियों को नवीन पटनायक से सबक लेकर महिलाओं को सत्ता में अधिकार बांटना चाहिए और इस आशय का कानून संसद में बने या न बने, राष्ट्रीय जीवन में तो लागू हो ही जाना चाहिए।
मतदाताओं के लिए ‘अग्निपरीक्षा’ की घड़ी
ओमप्रकाश मेहता
आजाद भारत के अस्सी करोड़ मतदाताओं के लिए फिर एक बार ‘अग्निपरीक्षा’ से अपना ‘भाग्यविधाता’ चुनने की घड़ी आ गई है, हर पांच साल में देश का मतदाता बड़ी आकांक्षाओं और सुखद भविष्य की कामना से चुनावी महायज्ञ में अपने वोट की आहूति डालता है, इस आशा व उम्मीद से कि अगले पांच वर्षों में देश विकास की बुलंदियों तक पहुंच जाएगा और देश का हर मतदाता अपने आपको सुखी-सम्पन्न और खुश मानेगा, किंतु पांच साल की अवधि पूरी होने के बाद आम मतदाता की स्थिति उस मयूर जैसी जो जाती है, जो काली घटाएँ आसमान में देखकर रातभर नाचता है और सुबह अपने पैरों की ओर देखकर आँसू बहाता है। आज देश के आम मतदाता की स्थिति उसी मोर जैसी है, चुनाव प्रचार के दौरान आधुनिक भाग्यविधाता (राजनेता) जनता को सुखी सम्पन्न होने के सतरंगी सपने दिखाते है और चुनाव अर्थात् अपनी गरज निकलने के बाद ये ही वादे ‘‘जुमलों’’ के रूप में परिवर्तित हो जाते है और आम वोटर की उम्मीद हवा-हवाई हो जाती है। क्या किया जाए? लोकतंत्र का अब यही चलन बन गया, साढ़े चार साल आम वोटर अपने आधुनिक ‘भाग्यविधाता’ के चरणस्पर्श करता है और सिर्फ छः महीनें ‘भाग्यविधाता’ को अपनी गरज पूरी करने के लिए आम मतदाता की याद आती है और वह चरण छूने की मुद्रा में आ जाता है।
यद्यपि पिछले सत्तर सालों से हमारे देश में चलन यही चल रहा है, किंतु अब इस चलन में कुछ बदलाव परिलक्षित होने लगा है, क्योंकि इक्कीसवीं सदी का मतदाता अब थोड़ा जागरूक हो रहा है, ज्यादा नहीं पिछले पांच सालों में उसके साथ जो जो गुजरा वह आज भी उसके दिल-दिमाग में अंकित है और वह अब उसका प्रतिशोध लेने का साहस जुटा रहा है, पिछले पांच साल पहले आज के सत्तारूढ़ दल व उसके नेताओं ने जो सतरंगी सपने दिखाए थे, वह उन्हें भुला नही है, और उनमें से कितने सपने साकार हो पाए यह भी उसे अच्छी तरह याद है, इसलिए वह इसका प्रतिशोध लेने से चूकेगा नहीं और उसका गिन-गिन कर बदला लेगा, शायद इसी आशंका से सत्ताधारी दल व उसके नेता कुछ डरे-सहमे से दिखाई दे रहे है और वे अपने संरक्षक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व अनुशंगी हिन्दूवादी संगठनों के मूंह ताकने को मजबूर हो गए है, यद्यपि पिछले पांच सालों में अपने सपने पूरे नहीं होने से हिन्दूवादी संगठन भी काफी निराश व नाराज है, किंतु विकल्प के अभाव में वे अधूरे मन से उन्ही वादा खिलाफी करने वाले दल व नेता का साथ देने को मजबूर है, ठीक यही स्थिति संघ की भी है।
शायद इसी राजनीतिक परिदृष्य और स्थिति के कारण इस बार चुनावों के बाद देश में ‘त्रिशंकु’ सरकार बनने की आशंका व्यक्त की जा रही है, किंतु यहां यह भी उल्लेखनीय है कि देश का आम मतदाता भी दिग्भ्रमित है, वह अपने अन्र्तमन से मौजूदा सरकार को पुनः सत्ता नही सौंपना चाहता, किंतु उसकी मुख्य परेशानी यह है कि उसके सामने जो प्रतिपक्षी दलों का विकल्प है, वह भी इस काबिल नहीं है कि उसे आंखें बंद करके समर्थन दे दिया जाए, क्योंकि एक तो ये दल संगठित व एक सूत्र में बंधे दिखाई नहीं दे रहे है, वहीं प्रतिपक्ष में कोई ऐसा सक्षम व विश्वसनीय नेता नजर नहीं आ रहा, जिसे प्रधानमंत्री पद का दायित्व सौंपा जाए, इस चुनाव से पहले के चुनावों में यह दुविधा की स्थिति नहीं थी, विकल्प के रूप में कांग्रेस थी, जिसके प्रधानमंत्री ने एक दशक तक सकुशल राजपाट चलाया था, किंतु राजनीति के आकाश पर चमके एक नए ‘धूमकेतु’ (नरेन्द्र भाई मोदी) ने देश के वोटरों में उम्मीद की किरण जगाई और वे सत्ता पर काबिज हो गए, अब इस बार यही धूमकेतु स्वयं अपनी चमक खोकर सेना की चमक को चमका कर अपनी स्वार्थ सिद्धी करने को उतारू है और पूरा देश यह सब भली प्रकार सोच समझ रहा है।
इस प्रकार कुल मिलाकर इस बार होने वाले लोकसभा चुनाव पिछले चुनावों से कई दृष्टि से अलग है, पिछले सत्तर सालों में देश का आम मतदाता के सामने कभी भी ऐसी दुविधा की स्थिति पैदा नहीं हुई, जितनी की आज है, और इसमें कोई दो राय नहीं कि योग्य विकल्प के अभाव में मतदाता ‘नोटा’ की ओर आकर्षित होकर उसका बटन दबाने को मजबूर हो सकते है, और यह आश्चर्य भी हो सकता है कि राजनीतिक प्रत्याशियों से ज्यादा वोट ‘नोटा’ को प्राप्त हो? इसलिए कई दुविधाजनक परिस्थितियों के कारण ही राजनीतितक दल व देश का आम मतदाता स्वयं ‘त्रिशंकु’ बनाने को मजबूर हो गया है।
इन्हें चाहिए सैन्य पराक्रम का श्रेय?
तनवीर जाफरी
सोशल मीडिया में पिछले दिनों एक चुटकुलाअत्यधिक वायरल हुआ जो इस प्रकार था-पिता-बेटा रिज़ल्ट कैसा रहा? पुत्र- कॉलेज में टॉप किया है पापा। पिता-अच्छा, अरे वाह। बेटा ज़रा मार्कशीट दिखाना? पुत्र- पापा आप कॉलेज के पराक्रम पर सवाल उठा रहे हैं। आप विश्वविद्यालय का मनोबल गिरा रहे हैं। आप शिक्षा जगत की छवि नष्ट कर रहे हैं। पिता- मगर बेटा एक बार मार्कशीट तो दिखाओ। बेटा- मार्कशीट चोरी हो गई। यह व्यंग्य भारतीय सेना द्वारा सीमा पार जा कर की गई सर्जिकल स्ट्राईक तथा इसके बाद भारत सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा किए जा रहे अलग-अलग भ्रांतिपूर्ण तथा अपुष्ट दावों के संदर्भ में था। गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में एक आत्मघाती हमले में शहीद 40 अर्धसैनिक बलों की जवाबी कार्रवाई के रूप में भारतीय सेना ने नियंत्रण रेखा के उस पार जा कर एयर सर्जिकल स्ट्राईक अंजाम दी। भारतीय वायुसेना द्वारा की गई इस पराक्रम पूर्ण एयर स्ट्राईक के तत्काल बाद सुबह से ही भारतीय मीडिया ने तथा केंद्र सरकार के कई मंत्रियों व देश के अनेक सत्ताधारी नेताओं द्वारा यह बताया जाने लगा कि बालाकोट में की गई एयर स्ट्राईक में सैकड़ों आतंकी मारे गए। किसी ने बालाकोट में मारे गए आतंकियों की संख्या चार सौ बताई तो किसी ने 350 तो कोई इस संख्या को 250 बता रहा था। यही हाल अत्यधिक उत्साही एवं चाटुकारिता, दलाली तथा सत्ता की खुशामद में मशगूल भारतीय टीवी चैनल्स का भी था। प्रत्येक टी वी चैनल बालाकोट में मारे गए आतंकियों की संख्या अलग-अलग बता रहा था।
इसी दौरान सबसे सही व संतुलित प्रतीत होने वाला बयान वायुसेना प्रमुख की ओर से आया जिसमें यह कहा गया कि वायुसेना द्वारा अपने लक्ष्यों को भेदा गया है तथा सेना का काम हमले करना है लाशें गिनना नहीं। ज़ाहिर है सेना ने अपने लक्ष्य पर सफल निशाना साधा। परंतु चंद ही घंटों में भारतीय मीडिया तथा सत्ताधारी नेताओं को आखिर यह कैसे पता चल गया कि मारे गए आतंकी चार सौ थे तीन सौ पचास या दो सौ पचास? राजनीति के शातिर व चतुर बुद्धि खिलाडिय़ों ने इस तरह का सवाल पूछने वालों का वही हश्र करने का प्रयास किया जो उपरोक्त व्यंग्यपूर्ण चुटकुले में पुत्र ने पिता का किया। अर्थातृ सवाल पूछने वाला राष्ट्रद्रोही, भारत विरोधी, पाकिस्तान का हमदर्द, पाकिस्तान की भाषा बोलने वाला तथा देश व देशप्रेम का दुश्मन बताया जाने लगा। खासतौर पर इस प्रकार के प्रश्र यदि कांग्रेस की ओर से या किसी विपक्षी दल की तरफ से किए गए तो उस पर तो पाकपरस्त व देश विरोधी यहां तक कि सेना के मनोबल को गिराने का जि़म्मेदार बताया गया। परंतु यही प्रश्र यदि पुलवामा हमले में शहीद अर्धसैनिक बलों के परिजनों द्वारा पूछे जाएं तो उन्हें भारत विरोधी कहने का साहस न ही किसी नेता में है न ही किसी ‘भक्त’ में।
उत्तर प्रदेश के शामली के प्रदीप कुमार व मैनपुरी के राम वकील सीआरपीएफ के उन 40 जवानों में शामिल थे जो पुलवामा में शहीद हुए। इनके मां-बाप, पत्नियां-बच्चे तथा भाई न केवल भाजपा नेताओं के दावों को झूठा करार देते हैं बल्कि यह भी पूछ रहे हैंं कि-‘कोई कैसे मान ले कि हमला हुआ और आतंकवादी मारे गए? हमें सुबूत दिखाईए तभी हमें शांति मिलेगी। और हमें पता चलेगा कि मेरे भाई के खून का बदला लिया गया है। कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दलों को पाकपरस्त व भारतीय सेना का मनोबल गिराने वाला बताने वाले राज ठाकरे की राष्ट्रभक्ति पर सवाल क्यों नहीं उठाते जो सीधेतौर पर सीआरपीएफ के पुलवामा शहीदों को न केवल ‘राजनैतिक शिकार’ बता रहे हैं बल्कि उनके अनुसार यदि-‘राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से पूछताछ की जाए तो पुलवामा आतंकी हमले की सच्चाई सामने आ जाएगी’। ठाकरे ने सवाल किया है कि वर्तमान तनाव पूर्ण वातावरण में क्या वजह है कि डोभाल के पुत्र का व्यवसायिक हिस्सेदार एक पाकिस्तानी नागरिक है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह जैसे जि़म्मेदार नेताओं व चंद भारतीय टीवी चैनल्स के बालाकोट में कथित रूप से मारे गए सैकड़ों आतंकियों के दावों की पुष्टि किसी भी अंतर्राष्ट्रीय मीडिया व एजेंसी द्वारा अभी तक नहीं की गई है। बल्कि इसके विपरीत न्यूयार्क टाईम्स, वाशिंटन पोस्ट व अलजज़ीरा जैसे अनेक प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय मीडिया द्वारा अपनी रिपोर्टस में यही लिखा गया है कि भारतीय वायुसेना ने सीमापार पाकिस्तान में घुसकर हमले तो ज़रूर किए परंतु किसी एक भी व्यक्ति के मरने का कोई प्रमाण नहीं मिला। हां कई मीडिया रिपोर्टस में बालाकोट के जंगलों में हुए पेड़ों के नुकसान का जि़क्र ज़रूर किया गया है। एक मीडिया रिपोर्ट में किसी एक ग्रामीण व्यक्ति के घायल होने का समाचार भी आया है। दावों-प्रतिदावों के बीच एक सवाल यह भी उठता है कि जब कभी भारतीय कश्मीर में किसी मुठभेड़ में कोई आतंकवादी अथवा आम कश्मीरी नागरिक मारा जाता है तो उसके जनाज़े में कितनी भीड़ उमड़ पड़ती है। सोचने की बात है कि यदि सैकड़ों आतंकी एक साथ मारे गए होते तो इन्हीं आतंकी संगठनों द्वारा पाक अधिकृत कश्मीर से लेकर पूरे पाकिस्तान तक में कितना हंगामा बरपा किया गया होता। क्या इन सैकड़ों आतंकियों के जनाज़ों की शव यात्राएं वर्तमान सेटेलाईट युग में किसी की नज़रों से छुपी रह पातीं?
पुलवामा हमले के बाद हालांकि विपक्ष द्वारा इस विषय पर राजनीति न करने का फैसला लेते हुए सरकार को पूरा सहयोग व समर्थन देने का निर्णय लिया गया था। परंतु जिस प्रकार भारतीय जनता पार्टी ने इस पूरी जवाबी सैन्य कार्रवाई का राजनीतिकरण किया है तथा सेना के पराक्रम को अपने ढंग से परिभाषित कर इसका श्रेय लेने की कोशिश की है इसने न केवल सरकार के दावों की पोल खोल कर रख दी है बल्कि सत्तापरस्त मीडिया ने भी अपनी साख दांव पर लगा दी है। इस समय देश के अनेक वर्तमान व पूर्व आला सैन्य अधिकारी सेना के राजनीतिकरण किए जाने के इस चलन से बेहद दु:खी हैं। निर्वाचन आयोग ने भी पिछले दिनों समस्त राजनैतिक दलों को यह सलाह दी है कि वे अपने चुनाव अभियान में सैनिकों व सैन्य अभियानों की तस्वीरों का इस्तेमाल न करें। भारतीय सेना के पराक्रम का देश में पहली बार इस कद्र राजनैतिक इस्तेमाल किया जा रहा है गोया भारतीय सेना देश के लिए नहीं बल्कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के लिए ही अपना पराक्रम दिखा रही हो।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व अमित शाह द्वारा बार-बार विभिन्न तरीकों से अपनी जनसभाओं में यह समझाने की भी कोशिश की जा रही है कि पाकिस्तान में उनके नाम से दहशत छाई हुई है जबकि कांग्रेस पार्टी पाकिस्तान की चहेती पार्टी है। जनता को वे समझाते हैं कि कंाग्रेस की बढ़त से पाकिस्तान में खुशी होती है जबकि उनकी जीत से पाकिस्तान में भय फैलता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि जनता में इस प्रकार की भ्रमपूर्ण बातें फैलाने वाले यह भूल जाते हैं कि पाकिस्तान के सीने पर अब तक का सबसे गहरा ज़ख्म देने वाली नेता और कोई नहीं बल्कि इंदिरा गांधी ही थीं। मोदी व शाह को यह भी याद होना चाहिए कि इसी इंदिरा गांधी को पाक-बंगलादेश विभाजन जैसे निर्णायक फैसले के साहस के लिए ही अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में उन्हें दुर्गा कहकर संबोधित किया था। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी का ही वह शासनकाल था जब 1971 में विश्व का सबसे बड़ा सैन्य समर्पण भारतीय सेना द्वारा कराया गया था। यह ढिंढोरा उस समय आज की तरह केवल भारतीय मीडिया ने नहीं बल्कि पूरे विश्व के मीडिया ने पीटा था। 1971 में इंदिरा गांधी ने न तो सैन्य पराक्रम का श्रेय लेने की कोशिश की न ही अपने चुनाव में सैनिकों की फोटो का इस्तेमाल किया परंतु आश्चर्य की बात है कि आज के खोखले सियासतदानों को मात्र अपने राजनैतिक लाभ के लिए सैन्य पराक्रम का श्रेय चाहिए।
हरिशंकर व्यास ने मांगी पाठकों से माफी
सनत जैन
नया इंडिया के संपादक हरि शंकर व्यास ने अपने पाठकों से माफी मांगते हुए 70 दिन का प्रायश्चित पर्व मनाने की बात अपने संपादकीय में कही है। 11 मार्च 2019 के अंक में उन्होंने जैन समाज के क्षमा पर्व का उल्लेख करते हुए मिच्छामि दुक्कड़म कहकर अपनी गलती के लिए पाठकों और देश के नागरिकों से क्षमा मांगी है। दुनिया के इतिहास में यह पहली घटना है, जिसने समाचार पत्र के संपादक ने 20 जनवरी 2014 को नरेंद्र मोदी का समर्थन करने एवं नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर संभावनाओं को लेकर आशावाद की जो मुहिम चलाई थी, उसके लिए उन्होंने पाठकों से क्षमा मांगी है। उन्होंने अपनी संपादकीय में लिखा है कि नरेंद्र मोदी ने कहा था, भारत भ्रष्टाचार से मुक्त होगा। आतंकवाद खत्म होगा। देश की सुरक्षा और चौकसी मजबूत होगी। आम लोगों का जीवन बेहतर होगा। अच्छे दिन आएंगे । नरेंद्र मोदी द्वारा जो भव्य दिव्य स्वप्न आम जनता को दिखाया गया था। उस पर मैंने भी विश्वास किया और नरेंद्र मोदी के पक्ष में लोकसभा चुनाव 2014 के पूर्व मुहिम चलाकर मोदी जी का समर्थन किया।
हरिशंकर व्यास ने अपनी संपादकीय में यह भी लिखा है कि जब लालकृष्ण आडवाणी ने नरेंद्र मोदी को ब्रिलिएंट इवेंट मैनेजर बताया था। उस समय मैंने आडवाणी जी पर कटाक्ष किया था। उस समय आडवाणी जी के बयान को उनकी हताशा और लाचारी बताते हुए मैंने नरेंद्र मोदी का समर्थन करते हुए आडवाणी जी को भी सलाह दी थी कि वह नरेंद्र मोदी की लीडरशिप का लोहा माने।
हरिशंकर व्यास ने अपने संपादकीय में 2013 एवं 2014 में नरेंद्र मोदी के दावों पर अपनी मोहर लगाते हुए जो मुहिम उनके पक्ष में चलाई थी। मुझसे यह पाप हो गया है। 125 करोड़ लोगों का प्रधानमंत्री यदि यह कहता है, चुनाव के वक्त कही हुई बातें जुमला थी रोजगार का अर्थ पकोड़े की गुनठी है। विदेश नीति का अर्थ विदेश यात्रा तथा विदेशी नेताओं के साथ फोटोशूट कराना है। पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने के लिए नवाज शरीफ के घर जाकर पकोड़े खाना है। चीन के राष्ट्रपति के यहां बार बार नाक रगड़ना , जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ गठबंधन की सरकार बना लेना। सर्जिकल स्ट्राइक का हल्ला और 55 माह के मोदी शासन में जो देखा है, जिया है, अनुभव किया है। भोंपू मीडिया और भाषणों की लफ्फाजी और बीच-बीच में बजती तालियों को देख कर प्रायश्चित करने का मेरा मन हुआ है।
हरि शंकर व्यास जी ने संपादकीय में लिखते हुए कहा जाने अनजाने में नरेंद्र मोदी के बहकावे में आकर मेरे द्वारा उनके पक्ष में आकर वोट देने के लिए प्रेरणा देने का जो पाप मुझसे हुआ है। उसके लिए मैं 70 दिन तक लगातार प्रायश्चित करूंगा। बतौर प्रायश्चित 10 वोट मोदी के खिलाफ डलवाने का संकल्प सभी से करूंगा। उन्होंने अपनी संपादकीय में पिछले वर्षों में मीडिया को बंद कराने के लिए जो नीति सरकार द्वारा अपनाई गई, उसका विरोध करते हुए लिखा कि सच्ची बात कहने और लिखने पर, यदि दुश्मन, देशद्रोही, सत्ता द्रोही, हिंदू द्रोही, लोगों को बनाया जाता है। मोदी के पक्ष में मुहिम चलाते समय जो पाप मुझसे हुआ था। उसके लिए उन्होंने अपने आप को जिम्मेदार ठहराते हुए लिखा, इंडियन एक्सप्रेस, पत्रिका, नया इंडिया, टेलीग्राफ एवं हिंदू जैसे समाचार पत्रों के खिलाफ की गई कार्रवाई का उल्लेख करते हुए उन्होंने मीडिया की गरिमा नेतृत्व शीलता निष्पक्षता और स्वतंत्रता को लेकर भी अपना पक्ष रखा है।
हरिशंकर व्यास जी की संपादकीय पर संपादकीय लिखने का मन इसलिए हुआ, कि उन्होंने जाने अनजाने में हुई गलती के लिए, पत्रकारिता की नैतिकता और समाज के प्रति जिम्मेदारी को देखते हुए अपनी गलती पर माफी मांगने में कोई कोताही नहीं की। जैन धर्म में ऐसा माना जाता है कि यदि आप से प्रेरणा लेकर कोई व्यक्ति उसका अनुसरण करता है। उससे उत्पन्न पाप और पुण्य का 25 फ़ीसदी हिस्से की भागीदारी प्रेरित करने वाले व्यक्ति की भी होती है। हरिशंकर व्यास ने अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए प्रायश्चित और क्षमा मांगकर मीडिया के लोगों को भी अपनी जिम्मेदारी का एहसास कराने का काम किया है वर्तमान संदर्भ में हरिशंकर व्यास द्वारा क्षमा मांगकर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेतृत्व को भी झकझोरने का काम किया है। इसकी मिसाल इसके पूर्व कभी देखने को नहीं मिली।
‘राजनीतिक राष्ट्रवाद’ में गुम हुआ आम वोटर……?
ओमप्रकाश मेहता
आजादी के बाद अब तक के सत्तर सालों में आम चुनाव के पूर्व देश में ऐसा माहौल कभी नहीं रहा, जैसा आज भारत में है, आज से पहले कभी भी सत्तारूढ़ दल ने अपनी सरकार की उपलब्धियां छोड़ कभी भी राष्ट्रवाद के नाम पर चुनाव लड़ने और देश के वोटर को चक्रव्यूह में फंसाने की कौशिश नहीं की और न ही कभी देश में प्रतिपक्ष इतना कमजोर रहा, जितना आज है। ऐसा लगता है कि आज देश की राजनीति एक ऐसे अंधेरे में भटक रही है जिसका कोई ओर है ना छोर। हमारे देश में हमेशा चुनाव उपलब्धियों के आधार पर लड़े जाते रहे और उपलब्धि ही जीत हार का आधार रहीं, किंतु जब सत्तारूढ़ दल की कोई उपलब्धि ही न हो और मजबूत प्रतिपक्ष न हो तो देश में चुनाव के पूर्व यही स्थिति निर्मित होती है। आज देश पर राज कर रहे राजनीतिक दल ने अपने शासनकाल के पांच सालों में देश के वोटर को सिर्फ ‘‘सपनों की सौदागिरी’’ की रंगीन सपने दिखाकर हर वोटर को ‘‘मुंगेरीलाल’’ बनाने का ही प्रयास किया और उपलब्धियों के नाम पर जीएसटी और ‘नोटबंदी’ जैसी अनुपलब्धियां बटौरी, अब ऐसे में सत्तारूढ़ दल के सामने ‘राष्ट्रवाद’ का सहारा लेने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं रहा।
वैसे ‘राष्ट्रवाद’ का कोई भी निःस्वार्थ सहारा ले तो कोई बुरी बात नहीं है, राष्ट्रहित व राष्ट्र की रक्षा हर भारतवासी का मूल दायित्व है किंतु जब राष्ट्रवाद के साथ राजनीतिक स्वार्थ जुड़ जाता है तो फिर राष्ट्रवाद की दशा-दिशा बदल जाती है और फिर उसमें राष्ट्रभक्ति समाहित नहीं रहती। आज देश को इसी खतरनाक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। आज के राजनीतिक दल वोटर व विकास की चिंता छोड़ अपने-अपने हिसाब से राष्ट्रवाद की परिभाषा गढ़ रहे है और उसे देश को समझाने का प्रयास कर रहे है। पांच साल पहले आज के प्रधानमंत्री जी अपने चुनावी भाषणों में देश व वोटर के हित की बात करते थे, वे ही महान नेता आज अपनी हर चुनावी सभा में प्रतिपक्ष की लाश में तीर चुभोते नजर आ रहे है, आज देश में न तो सत्तारूढ़ दल की कोई गरिमा शेष बची है और न कोई प्रतिपक्षी दल की साख ही। सत्तारूढ़ दल को अपनी सत्ता को बरकरार रखने की चिंता है तो प्रतिपक्षी दलों को अपना-अपना अस्तित्व कायम रखने की, ऐसे माहौल में होने वाले लोकसभा चुनाव क्या गुल खिला पाऐंगे, यही देखने की चीज होगी। चूंकि आज के इस राजनीतिक माहौल से देश का आम वोटर सत्तारूढ़ पक्ष व प्रतिपक्ष दोनों से ही निराश है, इसलिए संभव है इस बार लोकसभा चुनाव में ईवीएम मशीनों के ‘नोटा’ बटन का महत्व बढ़ जाए और मतदान का रूख मतदाताओं के आक्रोश में डूब जाए। क्योंकि आज देश का आम वोटर सत्तारूढ़ दल व प्रतिपक्षी दलों दोनों की ही निष्क्रीयता से नाराज है, न तो वह अब ऐसी सत्ता का पुनरागमन चाहता है और न बिखरे प्रतिपक्षी की अल्पायु सरकार चाहता है, ऐसे में उसके सामने केवल और केवल ‘नोटा’ का ही विकल्प शेष बचता है, इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि इस बार चुनाव में ‘नोटा’ का महत्व बढ़ जाए। और….. जहां तक प्रधानमंत्री जी के भावनात्मक भाषणों के असर का सवाल है, उनका असर कभी भी दीर्घजीवी नहीं होता, देश का आम वोटर तो आज के सत्तारूढ़ दल व प्रधानमंत्री को सिर्फ उपलब्धियों के आईने में देखना चाहता है, जहां दल व प्रधानमंत्री दोनों की ही सूरत धुंधली दिखाई दे रही है। अब राष्ट्रवाद के नाम पर चाहे एनवक्त पर पाकिस्तान का क्रीम-पावडर लगाकर चमकाने का प्रयास करें, किंतु उससे कुछ भी होना जाना नहीं है। आज की वास्तविकता तो यह है कि अब न तो सत्तारूढ़ दल में कोई चमक शेष रही और न प्रतिपक्षी दलों व उनके नेताओं में।
देश की आजादी के बाद से शायद पहली बार ही चुनाव पूर्व ऐसा माहौल है, देश पर पचास साल राज करने वाली कांग्रेस जहां अपना पूर्व अस्तित्व खो चुकी है, उसके नेता अपने अस्तित्व को कायम रखने की छटपटाहट में और अधिक गहरी खाई में धंसते जा रहे है, वही अन्य क्षेत्रिय दल भी राष्ट्रहित के बदले अपने स्वार्थ को महत्व दे रहे है, ऐसे में इस देश के भविष्य का क्या होगा? इसी चिंता में आज देश का आम मतदाता परेशान है।
क्षमा और क्रोध एक सिक्के के दो पहलू
डॉ. अरविन्द जैन
(10 मार्च क्षमा रविवार पर विशेष) हमारे यहाँ यह चलन हैं की हमें यह सिखाया जाता हैं की हमें क्रोध नहीं करना चाहिए ,यह नहीं सिखाया जाता हैं की हमें क्षमा करना चाहिए। हम सिखाते हैं की हमें झूठ नहीं बोलना चाहिए यह नहीं सिखाया जाता हैं की हमें सत्य बोलना चाहिए। क्षमा और क्रोध एक सिक्के के दो पहलु हैं। क्षमा भाव हममे पूर्ण समय होता हैं जबकि क्रोध की आयु बहुत कम होती हैं। कोई भी मनुष्य हमेशा क्रोधित नहीं हो सकता या रह सकता हैं। इसीलिए कहा जाता हैं क्षमा वीरस्य भूषणम।
इसलिये यदि तुम मनुष्य के अपराध क्षमा करोगे, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा। और यदि तुम मनुष्यों के अपराध क्षमा न करोगे, तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा न करेगा। मत्ती ६:१४, १५
तब यीशु ने कहा हे पिता, इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये जानते नहीं कि क्या कर रहें हैं… लूका २३:३४
यीशु ने कहा, मैं भी तुझ पर दंड की आज्ञा नहीं देता; जा, और फिर पाप न करना। युहन्ना ८:११
मैं वही हूं जो अपने नाम के निमित्त तेरे अपराधों को मिटा देता हूं और तेरे पापों को स्मरण न करूंगा। यशायाह ४३:२५
धन्य हैं वे, जो दयावन्त हैं, क्योंकि उन पर दया की जाएगी। मत्ती ५:६
क्योंकि मैं उन के अधर्म के विषय मे दयावन्त हूंगा, और उन के पापों को फिर स्मरण न करूंगा। इब्रानियों ८:१२
ब पतरस ने पास आकर, उस से कहा, हे प्रभु, यदि मेरा भाई अपराध करता रहे, तो मैं कितनी बार उसे क्षमा करूं, क्या सात बार तक? यीशु ने उस से कहा, मैं तुझ से यह नहीं कहता, कि सात बार, बरन सात बार के सत्तर गुने तक। मत्ती १८:२१, २२
यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है। १ युहन्ना १:९
उदयाचल अस्ताचल से जितनी दूर है, उस ने हमारे अपराधों को हम से उतनी ही दूर कर दिया है। भजन संहिता १०३:१२
पलटा न लेना, और न अपने जाति भाइयों से बैर रखना, परन्तु एक दूसरे से अपने समान प्रेम रखना; मैं यहोवा हूं। लैव्यवस्था १९:१८
दयावन्त के साथ तू अपने को दयावन्त दिखाता; और खरे पुरूष के साथ तू अपने को खरा दिखाता है। भजन संहिता १८:२५
क्योंकि हे प्रभु, तू भला और क्षमा करनेवाला है, और जितने तुझे पुकारते हैं उन सभों के लिये तू अति करूणामय है। भजन संहिता ८६:५
कृपा और सच्चाई तुझ से अलग न होने पाएं वरन उनको अपने गले का हार बनाना, और अपनी ह्रृदयरूपी पटिया पर लिखना। और तू परमेश्वर और मनुष्य दोनों का अनुग्रह पाएगा, तू अति बुद्धिमान होगा। नीतिवचन ३:३, ४
सी प्रकार यदि तुम में से हर एक अपने भाई को मन से क्षमा न करेगा, तो मेरा पिता जो स्वर्ग में है, तुम से भी वैसा ही करेगा। मत्ती १८:३५
और जब कभी तुम खड़े हुए प्रार्थना करते हो, तो यदि तुम्हारे मन में किसी की ओर कुछ विरोध हो तो क्षमा करो, इसलिये कि तुम्हारा स्वर्गीय पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा करे। मरकुस ११:२५
दोष मत लगाओ तो तुम पर भी दोष नहीं लगाया जाएगा; दोषी न ठहराओ तो तुम भी दोषी नहीं ठहराए जाओगे; क्षमा करो तो तुम्हारी भी क्षमा की जाएगी। लूका ६:३७
और एक दूसरे पर कृपाल, और करूणामय हो, और जैसे परमेश्वर ने मसीह में तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी एक दूसरे के अपराध क्षमा करो। इफिसियों ४:३२
और यदि किसी को किसी पर दोष देने को कोई कारण हो, तो एक दूसरे की सह लो, और एक दूसरे के अपराध क्षमा करो; जैसे प्रभु ने तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी करो। कुलुस्सियों ३:१३
और ध्यान से देखते रहो, ऐसा न हो, कि कोई परमेश्वर के अनुग्रह से वंचित रह जाए, या कोई कड़वी जड़ फूटकर कष्ट दे, और उसके द्वारा बहुत से लोग अशुद्ध हो जाएं। इब्रानियों १२:१५
क्रोध आत्मा की एक ऐसी विकृति हैं ,ऐसी कमजोरी हैं जिसके कारण उसका विवेक समाप्त हो जाता हैं। भले बुरे की पहचान नहीं रहती। जिस पर क्रोध आता हैं ,क्रोधी उसे भला बुरा कहने लगता हैं ,गाली देने लगता हैं ,मारने लगता हैं ,यहाँ तक की स्वयं की जान जोखम में डालकर भी उसका बुरा चाहता हैं। यही कोई हितैषी पुरुष भी बीच में आये तो उसे भी भला बुरा कहते हैं ,मारने लगता हैं। यदि इतने पर भी उसका बुरा न हो तो स्वयं दुखी होता हैं ,अपने अंगों का घात करने लगता हैं ,माथा कूटने लगता हैं ,यहाँ तक की विषादी का भक्षण करके मरजाता हैं।
क्रोधोदयाद भवति कस्य न कार्यहानिः!
अर्थात क्रोध के उदय से किसकी कार्य हानि नहीं होती ,अर्थात सभी की हाँ होती हैं।
क्रोध एक शांति भग्न करने वाला मनोविकार हैं।
क्षमा भाव की उत्कृष्ट अवस्था —
गाली सुन मन खेद न आनो,गुण को अवगुण कहै बखानो !
कहि हैं बखानो वस्तु छीने ,बाँध मार बहु विधि करे !!
घरतैं निकारें तन विदारै ,बैर जो न तहाँ धरैं !!
यानि निमित्तों की प्रतिकूलता में भी शांत रह सके ,वही उत्तम क्षमा का धारी हैं।
कार्यविघातक को सदा ,करो क्षमा का दान !
भूल सको यदि हानि तो बढ़ें और भी मान !!
दूसरे लोग तुम्हे हानि पहुचायें उसके लिए तुम उन्हें क्षमा कर दो ,और यदि तुम उसे भुला सको तो यह और भी अच्छा हैं।
गौरव को तुम चाहते ,बनना तुम आधार !
क्षमाशील बनकर करो ,सबसे सद्व्यवहार !!
यदि तुम सदा ही गौरव मय बनना चाहते हो तो सके प्रति क्षमामय व्यवहार करो।
इस प्रकार क्षमा की महिमा हर दर्शन में बहुत विस्तृत की गयी हैं बस जरुरत हैं अंगीकार करने की।
अमेठी भेदने की जुगत में कहीं काशी न ढह जाए?
निर्मल रानी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों अमेठी में इंडो-रूस राईफल प्राईवेट लिमिटेड के संयुक्त उपक्रम द्वारा निर्मित की जाने वाली ए के-203 राईफल्स की ईकाई का उद्घाटन किया। ए के 203 राईफल्स का निर्माण भारतीय आयुद्ध निर्माण बोर्ड तथा रूस की दो अलग-अलग कंपनियों रोसोबोरोन एक्सपर्ट व कंसर्न क्लाश्निकोव द्वारा संयुक्त रूप से किए जाने का प्रस्ताव है। प्रधानमंत्री द्वारा इस ईकाई को राष्ट्र को समर्पित करने के बाद भारतीय पक्षपाती मीडिया ने पूरे ज़ोर-शोर से यह प्रचारित किया कि अमेठी में प्रधानमंत्री ने एके-203 रायफल्स के निर्माण हेतु एक नए आयुद्ध कारख़ाने का शिलान्यास किया है। स्वयं प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर इस आयुद्ध कारख़ाने का पिछला इतिहास बताने से परहेज़ किया और देश को यही बताने की कोशिश की कि गांधी परिवार की संसदीय सीट होने के बावजूद अमेठी क्षेत्र में कोई विकास कार्य नहीं हुआ। और भारतीय जनता पार्टी विशेषकर उनके प्रयासों से ही इस क्षेत्र में एक नए आयुद्ध कारख़ाने का शिलान्यास किया जा रहा है जबकि वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। अमेठी में गत् चार दशकों में अनेक बड़े व मंझोले उद्योग स्थापित हुए हैं। पक्की सड़कों का जाल पूरे अमेठी क्षेत्र में बिछा हुआ है। राजीव गांधी से लेकर राहुल गांधी तक के दिल्ली कार्यालय में अमेठी के लिए एक विशेष सेल नियमित रूप से संचालित होता है। इसके माध्यम से अमेठी का कोई भी साधारण मतदाता भी अपने सांसद से सीधे संपर्क स्थापित कर सकता है तथा अपनी समस्याओं से अवगत करा सकता है।
अमेठी के विकास की इसी कड़ी में सर्वप्रथम 1 अक्तूबर 1964 को हिंदुस्तान एयरोनोटिक लिमिटेड (एचएएएल) जैसे भारतीय नवरत्न कारख़ाने की शुरुआत की गई थी। इसी एचएएल में जहां विमानों के पुर्जे बनाए जाते हैं वहीं इसी उद्योग परिसर में अनेक रक्षा उत्पाद व उपकरण तथा कई प्रकार की राईफल्स आदि भी निर्मित होती हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इसी आयुद्ध निर्माण प्राजेक्टस कोरवा,गौरीगंज में ही एके-203 नामक राईफ़ल के उत्पादन की भी शुरुआत की गई। सीधे शब्दों में यह कहा जाए कि कांग्रेस के शासनकाल में लगाए गए जिस एचएएल के अंतर्गतृ निर्मित आयुद्ध निर्माण प्रोजेक्ट में जिसका कि 2007 में ही सांसद राहुल गांधी द्वारा शिलान्यास किया गया था वहां अब एक और नए किस्म की रायफल का उत्पादन शुरू होगा। अमेठी में प्रधानमंत्री द्वारा किसी नए आयुद्ध कारख़ाने के शिलान्यास की खबर देश के लिए भले ही भ्रम पैदा करने वाली क्यों न हो परंतु अमेठी के लोग इस प्रकार की भ्रामक खबर को सुनकर काफी हैरान हैं। यहां तक कि क्षेत्र के लोगों में इस प्रकार के मिथ्या प्रचार को लेकर गुस्सा भी दिखाई दे रहा है। क्या इस प्रकार का दुष्प्रचार अमेठी के लोगों का नेहरू-गांधी परिवार के प्रति दशकों से चला आ रहा मोह भंग कर सकेगा? क्या प्रधानमंत्री कांग्रेस मुक्त भारत बनाने के असफल प्रयासों के बाद अब अमेठी संसदीय क्षेत्र को नेहरू-गांधी परिवार से मुक्त करा सकेंगे?
गौरतलब है कि 2014 में भाजपा ने स्मृति ईरानी को अमेठी लोकसभा सीट से पार्टी प्रत्याशी बनाया था। स्वयं नरेंद्र मोदी भी स्मृति ईरानी के चुनाव प्रचार में 5 मई 2014 को अमेठी में भाषण देकर आए थे। परंतु अमेठी की जनता ने भले ही कम मतो से सही परंतु पुन: राहुल गांधी को ही अपना सांसद चुना। उधर पराजित होने के बावजूद स्मृति ईरानी को मोदी मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया। भाजपा द्वारा स्मृति ईरानी को मंत्री बनाने के साथ ही यह संदेश दे दिया गया था कि संभवत: स्मृति ईरानी ही 2019 में भी अमेठी से प्रत्याशी होंगी। यही वजह है कि स्मृति ईरानी ने गत् पांच वर्षों में अमेठी के कई दौरे किए हैं यहां तक कि गत् दिनों एक-203 यूनिट के उदृघाटन के समय भी वे उपस्थित रहीं।
अब आईए अमेठी संसदीय क्षेत्र के नेहरू-गांधी परिवार से रिश्तों पर एक संक्षिप्त नज़र भी डालते हैं। याद रहे अमेठी के साथ लगती रायबरेली की सीट से फिरोज़ गांधी सांसद हुआ करते थे। उनकी मृत्यु के पश्चात रायबरेली से इंदिरा गांधी नियमित रूप से चुनाव लडऩे लगीं और रायबरेली इंदिरा गांधी का अभेद दुर्ग समझा जाने लगा। 1975 में संजय गांधी की राजनैतिक सक्रियता के बाद उन्हें भी लोकसभा चुनाव लड़ाने की ज़रूरत महसूस की गई। उस समय अमेठी के पूर्व राजा रणंजय सिंह से इंदिरा गांधी ने अपने पुत्र को अमेठी लोकसभा सीट से चुनाव लड़वाने का प्रस्ताव भेजा जिसे उन्होंने न केवल स्वीकार किया बल्कि अपने पुत्र संजय सिंह को भी संजय गांधी के साथ राजनीति में सक्रिय कर दिया। संजय गांधी 1977 में आपातकाल हटने के बाद उस समय पहला लोकसभा चुनाव लड़े जबकि पूरे देश में जयप्रकाश नारायण ने आपातकाल के विरुद्ध कांग्रेस विरोधी माहौल बना दिया था। इंदिरा गांधी भी उस समय एक तानाशाह के रूप में प्रचारित की गईं थी। इस कांग्रेस विरोधी माहौल में न केवल संजय गांधी अमेठी से अपना पहला चुनाव रविंद्र सिंह नामक जनता पार्टी के प्रत्याशी से हार गए बल्कि इंदिरा गांधी भी पहली बार रायबरेली से राजनारायण के हाथों पराजित हुईं।
इसके पश्चात 1979 में जब मात्र ढाई वर्षों में इंदिरा गांधी ने अपने सबल व कुशल नेतृत्व का लोहा मनवाते हुए जनता पार्टी की सरकार को गिरा दिया उस समय संजय गांधी अमेठी से तथा इंदिरा गांधी रायबरेली से पुन: निर्वाचित हुए। तब से लेकर अब तक कभी संजय गांधी तो कभी राजीव गांधी व अब राहुल गांधी अमेठी संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते आ रहे हैं। इस क्षेत्र में इस घराने की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अमेठी राजघराने द्वारा कई बार कांग्रेस का विरोध करने के बावजूद इस परिवार की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या पराजित स्मृति ईरानी को मंत्री बनाकर या आयुद्ध कारख़ाने के शिलान्यास जैसा भ्रम फैलाकर या अमेठी के लोगों को बार-बार यह जताकर कि अमेठी का नेहरू-गांधी परिवार ने कोई विकास नहीं किया, क्या अमेठी में कांग्रेस के दुर्ग को ढहाया जा सकेगा? जबकि इसी आयुद्ध कारखाने में काम करने वाले कर्मचारियों को एके-203 के निर्माण का समाचार मिलने के बाद यह संदेह होने लगा है कि कहीं रूसी सहयोग के चलते उन लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ न धोना पड़ जाए।
इसी संदर्भ में जबकि मोदी जी अमेठी भेदने के लिए पूरा ज़ोर लगा रहे हें उनके अपने संसदीय क्षेत्र काशी का जि़क्र करना भी बहुत ज़रूरी है। काशी को क्योटो बनाने के वादे के साथ जब मोदी ने काशीवासियों से यह कहा था कि- ‘मां गंगा ने मुझे बलाया है’ उस समय काशीवासियों को क्षेत्र के विकास को लेकर खासतौर से शहर व विशेषकर गंगा की स्वच्छता के लिए काफी उम्मीदें जगी थीं। परंतु वाराणसी का क्योटो बनना तो दूर अभी तक वाराणसी को गंदगी जैसी बुनियादी व गंभीर समस्या से निजात नहीं मिल सकी। शहर में ट्रैफिक जाम की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। गंगा में गंदगी की स्थिति लगभग जस की तस है। प्रधानमंत्री के क्षेत्र में निर्माणाधीन फ्लाईओवर गिरने की घटना से यह भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अधिकारीगण विकास कार्यों के प्रति कितना गंभीर हैं। और तो और प्रधानमंत्री द्वारा गोद लिए गए गांव तक की सूरत नहीं बदल सकी है। अब भी आए दिन वाराणसी के परेशाहाल लोग जनसमस्याओं को लेकर धरने-प्रदर्शन करते रहते हैं। बनारस विश्वविद्यालय के छात्रों का आक्रोश भी कई बार चर्चा का विषय बन चुका है। ऐसे में प्रधानमंत्री भ्रमित करने वाले दुष्प्रचार कर अमेठी को भेदने की कोशिश के बजाए अपने संसदीय क्षेत्र काशी पर अधिक ध्यान दें। कहीं ऐसा न हो कि अमेठी भेदने की जुगत में काशी भी ढह जाए।
प्रधान सेवक दिग्भ्रमित या बौराएँ
डॉ. अरविन्द जैन
एक महाराजा ने अपनी पुत्री की शादी के लिए पडोसी देश का राजकुमार आमंत्रित किया। राजकुमार जब आया तो महाराजा ने अपनी पुत्री राजकुमारी के साथ उसी के अनुरूप पांच और दासियाँ साथ में खड़ी कर दी। और राजकुमार से बोले की इनमे से आपको राजकुमारी पहचानना हैं। ठीक हैं राजकुमार ने कहा। पहली कन्या आयी तो राजकुमार ने कहा यह टेबल गन्दी हैं इसे साफ़ कर दो, तब उसने फ़ौरन एक कपड़ा उठाया कर टेबल साफ़ कर दी। इसी प्रकार दूसरी आयी तो राजकुमार ने कुर्सी सही नहीं रखी थी तो उसने उससे कुर्सी ठीक करने को कहा और उसने वह कुर्सी ठीक कर दी। इसी प्रकार एक कन्या आयी तो राजकुमार ने उससे एक ग्लास पानी बुलाया तो वह फ़ौरन गयीऔर एक गिलास पानी ले आयी। उसके बाद अन्य आयी तो टेबल पर पानी गिरा हुआ था तो राजकुमार ने उस टेबल को साफ़ करने कहा तो उसने फ़ौरन ताली बजा कर एक दासी को बुलाया और टेबल साफ़ करने को कहा। इस पर राजकुमार ने राजकुमारी की पहचान कर ली और उससे उसकी शादी हो गयी। इससे यह समझ में आता हैं जो खानदानी होते हैं वे अपने संस्कार नहीं छोड़ते हैं।
वर्तमान में हमारे देश में राजनीति के साथ जो भाषा की गिरावट दिखाई दे रही हैं वह सब राजनैतिज्ञों की कुलीनता को दर्शा रही हैं। कभी कभी यह कहा जाता हैं की संस्कारी व्यक्ति ही सत्ता के योग्य होता हैं पर आज देश में भीड़तंत्र के कारण कोई भी राजनीति में आ जाता है। यह प्रजातंत्र की खूबसूरती हैं। ये मान्यता नहीं हैं की काबुल में घोड़े ही घोड़े होते हैं गधे नहीं होते, वहां भी गधे होते भी हैं और होते ही हैं।
देश इस समय जातिवाद, सम्प्रदायवाद, राम मंदिर निर्माण से शायद मुक्त हो गया और देश में वर्तमान में बेरोजगारी, समाप्त हो चुकी हैं, विकास सम्पृक्त घोल जैसा हो गया हैं, विकास की गंगा बह रही हैं, माले मुफ्त खूब धन लुटाया /बांटा जा रहा हैं, राजनैतिक स्थिरता हैं, देश में अमन चैन हैं। इस बार का चुनाव में सत्ताधारी पार्टी के पास एक राष्ट्रवाद का मुद्दा हैं और दूसरा विपक्ष रहित देश का निर्माण करना हैं। जो सत्ता की तारीफ करे, गुणगान करे वह राष्ट्रप्रेमी और जो प्रश्न पूछे वह देश द्रोही। क्या सत्ता पार्टी के नेता यही सत्ता के विरोध में कुछ भी बोले वे भी देश द्रोही हो जाते हैं और जो सत्ता में बैठे कुछ भी अनर्गल, बिना आधार के कोई भी जानकारी दे वह राष्ट्रप्रेम।
प्रधान सेवक आचार संहिता के पहले इतना अधिक शिलान्यास या उद्घाटन या घोषणा करने में व्यस्त हैं, कही चुनाव की आचार संहिता उनकी इस गति पर विराम न लगा देगी फिर उनके पास कोई मुद्दा नहीं हैं इस बार चुनाव के लिए। पुलवामा ने उन्हें नया जीवनदान दे दिया और अभी भविष्य में और कोई अप्रत्याशित घटना का उपक्रम चलने वाला हैं जिसमे स्व प्रशंसा और पर निंदा रस का उद्घाटन होगा ही। कारण अब देश पूर्ण विकसित हो चूका हैं, कोई गरीब, भूखा नहीं हैं, कोई अब बेरोजगार नहीं हैं और अमन की गंगा बह रही हैं। बस परेशानी विपक्ष से हैं जो उनके सामने निकम्मा, अनुभवहीन और हमेशा असफल रहा हैं। सही बात हैं की सूर्य के सामने दिया की क्या औकात पर जब सूर्य का प्रकाश नहीं मिटा तब वह दिया ही काम आता हैं।
प्रधान सेवक पक्षी के दो पंख होते हैं उस आधार पर उड़ता हैं, यदि एक पाँख नहीं रहेगा तब वह नहीं उड़ सकेगा, इसी प्रकार सत्ता में पक्ष और विपक्ष का होना अनिवार्य हैं। यही एक पंख का पक्षी कुछ नहीं कर सकता हैं। प्रधानसेवक मात्र नेहरू गांधी परिवार के अलावा अपने कार्यकाल की तुलना करते हैं यह पूर्ण नासमझी हैं। अभी आप सत्ता से च्युत होने पर आपके कामों की नंगी तस्वीर सामने आएँगी तब सही खुलासा होगा। आपने पुरानी बिल्डिंग पर नया प्लास्टर चढ़ाया हैं। जो जितना किया हैं वह बहुत अच्छा हैं और किया जाएगा वह भी अच्छा हैं पर क्या बिना नींव के भवन कितना मजबूत होगा। आपके पास पूर्व सरकार की प्रगति का कोई अहसान या उपकार नहीं हैं। यह सोचनीय बात हैं। इतना अहम अच्छा नहीं होता हैं। इस जमीन पर कितने राजा महाराजा दफ़न हुए हैं और सबका नंबर आने वाला हैं। इसीलिए इतना घमंड करना उचित नहीं हैं। जब रावण का अहम नहीं रहा तो आप किस खेत की मूली हैं।
पर धन का लुटाना कोई नयी बात नहीं हैं, दूसरे घर की पंगत में खूब घी डाला जाता हैं पर अपने घर में एक बूँद भी गिर जाता हैं तो उसे तुरत पौंछ लेते हैं। आपके कृत्य की अपने आप प्रशंसा होगी। एक बात हैं अभी आप का पुण्य का उदय हैं तो सब संयोग अनुकूल हैं और जिस दिन पाप कर्म का उदय होगा तो अपने भी पराये हो जायेंगे। ये दुनिया में सब पुण्य पाप का ठाठ हैं और कुछ नहीं। इसीलिए सबके प्रति सद्भावना रखो जिससे आपको भी सद्भावना मिलेगी। माना आपका लक्ष्य देश प्रेम अधिक हैं और चुनाव जीतना आपकी प्राथमिकता नहीं तो फिर क्यों इतनी घृणा परोस रहे हो। नाम कमाने तो वो तो हो चूका पर यश अपयश ही साथ जायेगा। पर प्रधान सेवक द्वतीयों नास्ति के लिए संघर्ष कर रहे जिस कारण बौराएँ हैं। स्वस्थ्य प्रतियोगिता रखना चाहिए और बड्डपन बताएं न की ओछापन या घटियापन।
इमरान खान चमत्कार क्यों न करें ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान सरकार की इस घोषणा का कि वह मसूद अजहर के बेटे और भाई को नजरबंद कर रही है और हाफिज सईद के संगठनों पर फिर से प्रतिबंध लगा रही है, स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन मैं जानना चाहता हूं कि इन टोटकों से आतंकवाद खत्म कैसे होगा ? 2014 में जब पेशावर के सैनिक स्कूल के डेढ़ सौ बच्चों को आतंकियों ने मार डाला था तब क्या नवाज शरीफ सरकार इसी तरह की घोषणाएं करती रही थी ? उस समय मैं स्वयं इस्लामाबाद में था। प्रधानमंत्री मियां नवाज़ शरीफ मक्का-मदीना की यात्रा पर गए थे। वे पाकिस्तान लौटते उसके पहले ही पाकिस्तानी फौज ने सैकड़ों आतंकियों को मौत के घाट उतार दिया। पूरे पख्तूनख्वाह-प्रांत में भगदड़ मच गई। अब जो आतंकियों की नजरबंदी की घोषणा इमरान सरकार ने की है, यदि उसे भरोसेलायक बनाना है तो मैं तो यह नहीं कहूंगा कि वह हजार-दो हजार लोगों की हत्या कर दे बल्कि यह तो करे कि उनके सरगनाओं से सरे-आम टीवी चैनलों पर माफी मंगवाए, उनसे अपने गुनाहों को कुबूल करवाए और वे खुद अपने अपराधों के लिए सजा मांगें। अगर इमरान खान यह चमत्कारी काम करवा सकें तो एक क्या, सैकड़ों नोबेल पुरस्कार उनके चरण में लोटेंगे। तब ही वे ‘नए पाकिस्तान’ की नींव रखेंगे। तभी वे जिन्ना के स्वप्नों को साकार करेंगे। उनके विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने हामिद मीर को जो इंटरव्यू दिया है, वह इस दृष्टि से लाजवाब है लेकिन मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करवाने के सवाल पर उनकी जुबान लड़खड़ा रही थी। क्यों ? क्योंकि उन्हें विरोधी नेताओं का उतना नहीं, जितना फौज का डर है। फौज ने आतंकवादियों को अपना अग्रिम दस्ता बना रखा है। यह खेल बहुत मंहगा पड़ सकता है। 2014 में पाकिस्तानी संस्थानों में मेरे भाषणों के दौरान मैंने यह भविष्यवाणी की थी। मैंने पाकिस्तान के सभी बड़े नेताओं, विशेषज्ञों और पत्रकारों से उस समय कहा था कि यह नरेंद्र मोदी हैं, अटलजी या मनमोहनजी नहीं हैं। इमरान भी इमरान हैं। वे चाहें तो नई लकीर खींच सकते हैं। उन्होंने पिछले दिनों अपने वाणी-संयम और उदारता से अपनी इज्जत बढ़ाई है। उन्होंने अपने पंजाब के सूचना और संस्कृति मंत्री फय्याजुल हसन चौहान को बर्खास्त करके अपनी छवि में चार चांद लगा लिये हैं। चौहान ने भारतीय हिंदुओं को ‘पत्थर पूजक और गौमूत्र पीनेवाला’ कहा था। धार्मिक सहिष्णुता की शायद यह अद्भुत और पहली मिसाल पाकिस्तान ने पेश की है। यह आतंक की नहीं, प्रेम की भाषा है। यदि अब भी आतंकी खेल बंद नहीं हुआ तो हमारे दोनों देश तबाह हुए बिना नहीं रहेंगे। अब यदि दुबारा कोई पुलवामा हो गया तो वह मुठभेड़ संक्षिप्त और सीमित नहीं होगी। भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों के ज्यादातर लोग शांति, सदभाव और उन्नति चाहते हैं। मुझे विश्वास है कि इमरान और कुरैशी, जो मेरे पुराने परिचित हैं, मेरी बातों पर कुछ ध्यान देंगे।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास और महत्व
डॉक्टर अरविन्द जैन
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस हर साल 8 मार्च को मनाया जाता है। यह विशेष दिन अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रही महिलाओं का सम्मान करने और उनकी उपलब्धियों का उत्सव मनाने का दिन है। सबसे पहले ये दिन अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आह्वान पर 28 फ़रवरी 1909 को मनाया गया था। बाद में इसे फरवरी के आखिरी रविवार को मनाया जाने लगा। शायद आपको जान कर आश्चर्य हो कि पहले अधिकतर देशों में महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था। उन्हें ये अधिकार दिलाने के उद्देश्य से 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन सम्मेलन में महिला दिवस को अन्तर्राष्ट्रीय दर्जा दिया गया। इस दिवस की महत्ता तब और भी बढ़ गयी जब 1917 में फरवरी के आखिरी रविवार को रूस में महिलाओं ने बीड एंड पीस के लिए एक आन्दोलन छेड़ दिया जो जो धीरे-धीरे बढ़ता गया और ज़ार को रूस की सत्ता छोड़नी पड़ी। इसके बाद जो अंतरिम सरकार बनी उसने महिलाओं को वोट देने का अधिकार दे दिया।
रुस में जब ये आन्दोलन शुरू हुआ था तब वहां जुलियन कैलेण्डर चलता था (अब ग्रेगेरियन कैलेण्डर प्रयोग होता है) जिसके मुताबिक़ फरवरी का आखिरी रविवार को 23 तारीख थी जबकि बाकी दुनिया में उस समय भी ग्रेगेरियन कैलेंडर चलता था और उसके मुताबिक़ रूस की तेईस फरवरी बाकी दुनिया की आठ मार्च थी इसीलिए ८ मार्च को इंटरनेशनल विमेंस डे के रूप में मनाया जाने लगा।
मित्रों नारियों में अपरिमित शक्ति और क्षमताएँ विद्यमान हैं। व्यवाहरिक जगत के सभी क्षेत्रों में उन्होने कीर्तिमान स्थापित किये हैं। अपने अदभुत साहस, अथक परिश्रम तथा दूरदर्शी बुद्धिमत्ता के आधार पर विश्वपटल पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहीं हैं। मानवीय संवेदना, करुणा, वात्सल्य जैसे भावो से परिपूर्ण अनेक नारियों ने युग निर्माण में अपना योगदान दिया है। ऐसी ही महान नारियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का संक्षिप्त परिचय देने का प्रयास कर रहे हैं।
एक ऐसा क्षेत्र, जहां महिलाएं सशक्तिकरण की राह पर हैं और अपने पक्ष की मजबूत दावेदारी दिखा रही हैं। यह क्षेत्र है देश की सुरक्षा। देश की सुरक्षा सबसे अहम होती है, तो इस क्षेत्र में आखिर महिलाओं की भागीदारी को कम क्यूं आंका जाए। देश की मिसाइल सुरक्षा की कड़ी में 5000 किलोमीटर की मारक क्षमता वाली अग्नि-5 मिसाइल की जिस महिला ने सफल परीक्षण कर पूरे विश्व मानचित्र पर भारत का नाम रौशन किया है, वह शख्सियत हैं टेसी थॉमस।
डॉ. टेसी थॉमस को कुछ लोग ‘मिसाइल वूमन’ कहते हैं, तो कई उन्हें ‘अग्नि-पुत्री’ का खिताब देते हैं। पिछले 20 सालों से टेसी थॉमस इस क्षेत्र में मजबूती से जुड़ी हुई हैं। टेसी थॉमस पहली भारतीय महिला हैं, जो देश की मिसाइल प्रोजेक्ट को संभाल रही हैं। टेसी थॉमस ने इस कामयाबी को यूं ही नहीं हासिल किया, बल्कि इसके लिए उन्होंने जीवन में कई उतार-चढ़ाव का सामना भी करना पड़ा। आमतौर पर रणनीतिक हथियारों और परमाणु क्षमता वाले मिसाइल के क्षेत्र में पुरुषों का वर्चस्व रहा है। इस धारणा को तोड़कर डॉ. टेसी थॉमस ने सच कर दिखाया कि कुछ उड़ान हौसले के पंखों से भी उड़ी जाती।
डॉ. किरण बेदी भारतीय पुलिस सेसेवा की प्रथम वरिष्ठ महिला अधिकारी हैं। उन्होंने विभिन्न पदों पर रहते हुए अपनी कार्य-कुशलता का परिचय दिया है। वे संयुक्त आयुक्त पुलिस प्रशिक्षण तथा दिल्ली पुलिस स्पेशल आयुक्त (खुफिया) के पद पर कार्य कर चुकी हैं। ‘द ट्रिब्यून’ के पाठकों ने उन्हें ‘वर्ष की सर्वश्रेष्ठ महिला’ चुना। उनके मानवीय एवं निडर दृष्टिकोण ने पुलिस कार्यप्रणाली एवं जेल सुधारों के लिए अनेक आधुनिक आयाम जुटाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है।वर्तमान में वे पांडुचेरी की उपराज्यपाल पद पर आसीन हैं .
निःस्वार्थ कर्तव्यपरायणता के लिए उन्हें शौर्य पुरस्कार मिलने के अलावा उनके अनेक कार्यों को सारी दुनिया में मान्यता मिली है, जिसके परिणामस्वरूप एशिया का नोबल पुरस्कार कहा जाने वाला रमन मैगसेसे पुरस्कार से उन्हें नवाजा गया। व्यावसायिक योगदान के अलावा उनके द्वारा दो स्वयं सेवी संस्थाओं की स्थापना तथा पर्यवेक्षण किया जा रहा है। ये संस्स्थाएं हैं- 1988 में स्थापित नव ज्योति एवं 1994 में स्थापित इंडिया विजन फाउंडेशन। ये संस्थाएं रोजना हजारों गरीब बेसहारा बच्चों तक पहुँचकर उन्हें प्राथमिक शिक्षा तथा स्त्रियों को प्रौढ़ शिक्षा उपलब्ध कराती है।
‘नव ज्योति संस्था’ नशामुक्ति के लिए इलाज करने के साथ-साथ झुग्गी बस्तियों, ग्रामीण क्षेत्रों में तथा जेल के अंदर महिलाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण और परामर्श भी उपलब्ध कराती है। डॉ. बेदी तथा उनकी संस्थाओं को आज अंतर्राष्ट्रीय पहचान प्राप्त है। नशे की रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा किया गया ‘सर्ज साटिरोफ मेमोरियल अवार्ड’ इसका ताजा प्रमाण है।
भारतीय ट्रैक ऍण्ड फ़ील्ड की रानी” माने जानी वाली पी॰ टी॰ उषा भारतीय खेलकूद में 1979 से हैं। वे भारत के अब तक के सबसे अच्छे खिलाड़ियों में से हैं। उन्हें “पय्योली एक्स्प्रेस” नामक उपनाम दिया गया था। 1983 में सियोल में हुए दसवें एशियाई खेलों में दौड़ कूद में, पी॰ टी॰ उषा ने 4 स्वर्ण व 1 रजत पदक जीते।
वे जितनी भी दौड़ों में हिस्सा लीं, सबमें नए एशियाई खेल कीर्तिमान स्थापित किए। 1985 में जकार्ता में हुई एशियाई दौड-कूद प्रतियोगिता में उन्होंने पाँच स्वर्ण पदक जीते। एक ही अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में छः स्वर्ण जीतना भी एक कीर्तिमान है। ऊषा ने अब तक 101 अतर्राष्ट्रीय पदक जीते हैं। वे दक्षिण रेलवे में अधिकारी पद पर कार्यरत हैं। 1985 में उन्हें पद्म श्री व अर्जुन पुरस्कार दिया गया।
एक भारतीय महिला मुक्केबाज हैं, मैरी कॉम पांच बार विश्व मुक्केबाजी प्रतियोगिता की विजेता रह चुकी हैं। दो वर्ष के अध्ययन प्रोत्साहन अवकाश के बाद उन्होंने वापसी करके लगातार चौथी बार विश्व गैर-व्यावसायिक बॉक्सिंग में स्वर्ण जीता। उनकी इस उपलब्धि से प्रभावित होकर एआइबीए ने उन्हें मॅग्नीफ़िसेन्ट मैरी (प्रतापी मैरी) का संबोधन दिया। वह 2012 के लंदन ओलम्पिक मे महिला मुक्केबाजी मे भारत की तरफ से जाने वाली एकमात्र महिला थीं।
मैरी कॉम ने सन् 2001 में प्रथम बार नेशनल वुमन्स बॉक्सिंग चैंपियनशिप जीती। अब तक वह छह राष्ट्रीय खिताब जीत चुकी है। बॉक्सिंग में देश का नाम रौशन करने के लिए भारत सरकार ने वर्ष 2003 में उन्हे अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया एवं वर्ष 2006 में उन्हे पद्मश्री से सम्मानित किया गया। जुलाई 29, 2009 को वे भारत के सर्वोच्च खेल सम्मान राजीव गाँधी खेल रत्न पुरस्कार के लिए (मुक्केबाज विजेंदर कुमार तथा पहलवान सुशील कुमार के साथ) चुनीं गयीं। सायना नेहवाल, सानिया मिर्जा जैसी कई महिलाएं खेल जगत की गौरवपूर्ण पहचान हैं। 1984- बछेन्द्री पाल दुनिया की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट को फतह करने वाली पहली भारतीय महिला हैं।
मेरी क्युरी विख्यात भौतिकविद और रसायनशास्त्री थी। मेरी ने रेडियम की खोज की थी। विज्ञान की दो शाखाओं (भौतिकी एवं रसायन विज्ञान) में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाली वह पहली वैज्ञानिक हैं। वैज्ञानिक मां की दोनों बेटियों ने भी नोबल पुरस्कार प्राप्त किया। बडी बेटी आइरीन को 1935 में रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ तो छोटी बेटी ईव को 1965 में शांति के लिए नोबेल पुरस्कार मिला।
ब्रिटिश संसद में महिलाओं को भाग लेने का अधिकार नही था। 1911 में महिलाओं के अधिकार के लिये लङने वाली वीर नारी नेन्सी एस्टर, ब्रिटिश संसद की पहली महिला सासंद बनी। विश्व के राजनीतिक पटल पर आज अनेक देशों के सर्वोच्च पद पर महिलाओं का वर्चस्व है। श्रीलंका की प्रधानमंत्री श्रीमावो भंडार नायके विश्व की प्रथम महिला राष्ट्रपति निर्वाचित हुई।
विश्वराजनीति के पटल पर पहली महिला राष्ट्रपति का गौरव फिलीपीन्स की मारिया कोराजोन एक्यीनो को जाता है। रजीया सुल्तान हो या बेनीजीर भुट्टो या बेगम खालिदा जिया जैसी कई साहसी मुस्लिम महिलाओं ने भी राजनीति में अपनी एक अलग पहचान बनाई है। भारत जैसे शक्तिशाली देश की कमान इंदिरा गाँधी, प्रतिभा सिंह पाटिल द्वारा संचालित की जा चुकी है। लोकसभा अध्यक्षा मीरा कुमार एवं अनेक राज्यों की महिला मुख्यमंत्री आज भी अपने कार्य को सफलता पूर्वक अंजाम दे रहीं हैं। अभी हाल ही में एशिया की चौथी सबसे बङी अर्थव्वस्था की नेता पार्क ग्यून हेई ने दक्षिण कोरिया की पहली महिला राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेकर नारी वर्ग के गौरव को और आगे बढाया है.
साहित्य जगत में भी महिलाओं का अभूतपूर्व योगदान रहा है। हिंदी साहित्य में ऐसी गंभीर लेखिकाओं की कमी नही है जिन्होने अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त करके विस्तृत साहित्य का सृजन किया है। महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, महाश्वेता देवी, आशापूर्णा देवी, मैत्रिय पुष्पा जैसी अनेक महिलाओं ने असमान्य परिस्थितियों में भी साहित्य जगत को उत्कृष्ट रचनाओं से शुशोभित किया है। 18 फरवरी, 1931 को अमेरिका में जन्मी टोनी मोरीसन का नाम विश्व साहित्य में काफी जाना-माना नाम है। नोबेल सम्मान से सम्मानित टोनी ने साहित्य के जरिये अफ्रीकी अमेरिकी अश्वेत औरतों को खास पहचान दिलाने का काम किया है।
भगनी निवेदिता, मदर टेरेसा या रमाबाई, करुणा और वात्सल्य की भावना से ओतप्रोत महिलाओं ने सामाजिक क्षेत्र की भूमिका को बहुत ही आत्मिय तरीके से निभाया है। उनकी राह पर चलकर आज भी अनेक महिलाएं समाज सुधार के लिये तत्पर हैं।
एनी बेसंन्ट ने कहा है कि-स्त्रियाँ ही हैं, जो लोगों की अच्छी सेवा कर सकती हैं, दूसरों की भरपूर मदद कर सकती हैं। जिंदगी को अच्छी तरह प्यार कर सकती हैं और मृत्यु को गरिमा प्रदान कर सकती हैं।
आज नारी ट्रेन और हवाई जहाज को भी सफलता पूर्वक चला रही है, बल्की अंतिरक्ष में भी नये कीर्तिमान बना रही है। भारतीय मूल की सुनीता विलियम्स और कल्पना चावला अंतरिअंतरिक्ष पटल की खास पहचान हैं। प्रथम महिला रेलगाङी ड्राइवर सुरेखा यादव, जो कि भारत की ही नही वरन एशिया की भी पहली महिला ड्राइवर हैं।
आज नारी अपने साहस के बल पर पूरे आत्मविश्वास के साथ हर क्षेत्र में कामयाबी का परचम लहरा रही है। सिनेमा जगत को नये रंगो से भर रही हैं। लाइट, कैमरा. एक्शन बोलती महिलायें अपने कदमों के निशान छोङ रही हैं और सामने ला रही हैं एक नया सिनेमा। निर्देशन का जिक्र हो तो सांई परांजपे का नाम जहन में आ जाता है, जिनके निर्देशन में बनी फिल्म जादू का शंख, स्पर्श, चश्मेंबद्दूर, कथा जैसी फिल्मों ने सिने जगत को एक नई पहचान दी। 1996 में संई परांजपे को पद्मभूषण से नवाजा गया। अपर्णा सेन, फराह खान, सरोज खान, नेहा पार्ती जैसी कई महिलाएं सीने जगत में कुछ अलग हट के काम कर रही हैं।
पंचायती राज में आरक्षण के कारण आज बङी संख्या में गाँव की महिलाएं चुनाव जीत कर जनप्रतिनिधी के रूप में नेतृत्व की कमान संभाल रही हैं। मूक दर्शक बने पंचायत की कारवाई देखना अब बीती बात हो गई है। महिला सरपंचो द्वारा किये गये पंचायतो के कार्यों की चर्चा दूर-दूर तक हो रही है। शमा खान, गीता बाई जैसी अनेक महिला सरपंचो ने नारी के गौरव को बढाया है। सिरोही जीले की निचलागढ ग्राम पंचायत की सरपंच सरमी बाई के कार्यों की सराहना अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भी कर चुके हैं। भारत की रीढ कही जाने वाली अर्थव्यवस्था, खेती किसानी में भी रामरती जैसी महिलाएं महत्वपूर्ण योगदान दे रहीं हैं। महिलाओं की जागृति और आत्म विश्वास से निश्चित रूप से गाँवों की तस्वीर और तकदीर दोनो ही बदल जायेगी।
नई सदी की नारी के पास कामयाबी के उच्चतम शिखर को छूने की अपार क्षमता है। उसके पास अनगिनत अवसर भी हैं। जिंदगी जीने का जज्बा उसमें पैदा हो चुका है। दृढ़ इच्छाशक्ति एवं शिक्षा ने नारी मन को उच्च आकांक्षाएँ, सपनों के सप्तरंग एवं अंतर्मन की परतों को खोलने की नई राह दी है।
इंद्रा नूई, चन्द्रा कोचर, नैना लाल किदवई, किरण मजुमदार शॉ, स्वाति पिरामल, चित्रा रामकृष्णा,जैसी अनेक महिलाएं आज वाणिज्य जगत में प्रतिष्ठित कंपनियो की सीईओ बनकर बहुत ही सफलता पूर्वक अपने कार्य को अंजाम दे रही हैं। नारी की साहसिक यात्रा अपने आकाश के साथ स्वतंत्रता की सांस ले रही है। आज महिलाएं फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपनी बातें शेयर कर रही हैं। देश दुनिया की खबर रखती आज की नारी घर और दफ्तर में बखुबी तालमेल स्थापित कर रहीं हैं। समय के साथ खुद को अपडेट करती हुई अपनी बेटी को भी स्वालंबी बना रहीं हैं।
मानवता की मूर्तीवती, तू भव्य-भूषण भंडार।
दया, क्षमा, ममता की आकार, विश्व प्रेम की है आधार।।
अब मत समझो अबला और निरीह पराश्रित
सबसे ऊँचा पद था ,हैं और रहेगा नारी रूप हज़ार।।
सौ सौ नारी सौ सौ सुत को ,जनती रहती सौ सौ ठौर।
तुम से सुत को जनने वाली ,जननी महती क्या है और।।
तारागण को सर्व दिशाएं ,धरें नहीं कोई खाली।
पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी ,दिनपति को जनने वाली।।
अमेठी में भाजपा की किलेबंदी
प्रभुनाथ शुक्ल
भाजपा मिशन-2019 की तैयारी में पूरी तरह जुट गयी है। उसने अपनी रणनीति के केंद्र में यूपी और कांग्रेस के सियासी गढ़ अमेठी को रखा है। जबकि महागठबंधन की चुनावी तस्वीर अभी जमीन पर उतरती नहीं दिखती। भाजपा किसी भी तरह से यूपी को अपने हाथ से नहीं निकलने देना चाहती। अबकि बार उसके निशाने पर गांधी परिवार की राजनीतिक जमींन अमेठी है। स्मृति ईरानी और भाजपा पूरी तरह अमेठी पर कब्जा करना चाहती है। भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत के साथ अमेठी मुक्त कांग्रेस की तरफ बढ़ती दिखती है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेठी की जनता को पांच हजार करोड़ की योजनाओं का तोहफा दिया है। जिसमें रसिया और भारत के सहयोग से एक आर्डिनेंस फैक्टी का उद्घाटन भी किया है। जहां से एके-203 राइफल का उत्पादन होगा। यूपीए सरकार में 2007 में इसकी नींव रखी गयी थी। हालांकि इस पर राजनीति भी शुरु हो गयी है। राहुल गांधी ने एक ट्वीट के जरिए पीएम मोदी पर झूठ बोलने का भी आरोप लगाया है। राहुल गांधी की तरफ से कहा गया है कि गन फैक्टी में उत्पादन पहले से हो रहा है। जिस पर ईरानी ने पलटवार किया है।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के सामने 2014 में अमेठी से स्मृति ईरानी चुनाव लड़ी थी। जिसमें उनकी पराजय हुई थी। लेकिन अमेठी की जनता को वह एतवार दिलाने में कामयाब रही हैं कि राहुल गांधी से कहीं अधिक उन्हें आपकी चिंता है। मोदी सरकार में खासी अहमियत रखने वाली ईरानी अमेठी में व्यापक पैमाने पर लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ भी दिलाया है। जिसमें उज्ज्वला योजना, कुम्भकारों को इलेक्टानिक चाक, मधुमक्खी पालन शामिल हैं। दीवाली पर लोगों को उपहार भी उनकी तरफ से बांटे जाते रहे हैं। राहुल गांधी के हर सियासी हमले का जबाब उनकी तरफ से दिया जाता रहा है। ईरानी अमेठी को अपनी राजनैतिक जमींन के रुप में तैयार करना चाहती हैं। क्योंकि केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार है इसलिए सरकारी योजनाओं के जरिए विकास का खाका तैयार कर अपनी अहमियत जताना चाहतीं हैं। वह अमेठी से चुनाव भी लड़ना चाहती हैं। अब भाजपा उन्हें हरीझंडी देती है या नहीं यह वक्त बताएगा। भाजपा इस सीट को अपने कब्जे में लेकर यह संदेश देना चाहती है कि उसने गांधी परिवार का अंतिम किला भी सियासी एयर स्टाइक से ध्वस्त कर दिया। क्योंकि राफेल के मसले उठा कर राहुल गांधी ने पीएम मोदी और भाजपा के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी की है।
भाजपा का मिशन अमेठी क्या कांग्रेस और राहुल गांधी को मुश्किल में डाल सकता है। कांग्रेस का राजनैतिक गढ़ अमेठी क्या उससे छिन जाएगा। यह वक्त बताएगा, लेकिन रायबरेली और अमेठी में भाजपा की अधिक हलचल दिखने को मिल रही है। लेकिन यह चुनावी रणनीति , जमींन पर कितनी सफल दिखती है इसका आकलन भी करना आवश्यक है। अमेठी से भाजपा की बरिष्ठ नेता स्मृति ईरानी 2014 में चुनावी लड़ी थी। उन्हें 3,00,748 वोट मिले थे जबकि राहुल गांधी को 4,08,651 मत हासिल हुए थे। राहुल गांधी ने एक लाख से अधिक वोटों से ईरानी को हराया था। बसपा के धर्मेद्र प्रताप सिंह को 57,716 वोट हासिल हुए थे। जबकि आप के कुमार विश्वास को 25,527 मत मिले थे। समाजवादी पार्टी ने यहां से अपना उम्मीदवार नहीं उतारा था। अमेठी में कुल 16,69,843 मतदाता पंजीकृत थे जिसमें 8,74,625 लोगों ने अपने मत का प्रयोग किया था। 52 फीसदी से अधिक मतदान हुआ था। राहुल गांधी 2009 में यहां से 2014 के मुकाबले सबसे अधिक 4,64,195 लाख वोट हासिल किया था। दूसरी पायदान पर बसपा के आशीष शुक्ला थे जिन्हे 93,997 वोट मिले थे जबकि भाजपा के प्रदीप सिंह तीसरे नम्बर पर थे उन्हें 37,570 वोट मिले। उस दौरान 45 फीसदी से अधिक पोलिंग हुई थी। कुल वोटर यहां 14,31,787 थे जबकि 6,64,650 ने अपने मत का प्रयोग किया था। इस लिहाज से देखा जाए तो यहां गांधी परिवार को पराजित करना बेहद मुश्किल काम लगता है। क्योंकि 2014 में मोदी लहर थी। मोदी का जादू वोटरों के सिर चढ़ कर बोल रहा था। देश में कांग्रेस के प्रति एक नकारात्मक सोच बनी थी। लेकिन यूपी में इस बार सपा-बसपा के सियासी तालमेल से रणनीति बदल गयी है।
यूपी की राजनीति 2014 के मुकाबले 2019 की जमींन काफी बदल चुकी है। 2014 में भाजपा 73 सीटों पर जीत दर्ज किया था जिसमें सहयोगी अपना दल भी शामिल है। चुनावी सर्वेक्षण बता रहे हैं कि इस बार भाजपा के लिए यूपी की राह आसान नहीं होगी। क्योंकि जातिय गठजोड़ की वजह से उसे भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। जिसकी वजह से अमेठी में भी काफी बदलाव देखने को मिलेगा जो भाजपा के लिए बड़ी चुनौती होगी। 2014 और 2009 में सपा ने यहां से अपने उम्मीदवार नहीं खड़े किए थे जबकि बसपा ने दोनों बार अपने उम्मीदवारे उतारे थे। अगर 2014 और 2009 में केवल बीएसपी मतों का स्थानांतरण कांग्रेस की झोली में जाता है तो उस लिहाज से भाजपा उस खांई को पाटती नहीं दिखती। क्योंकि स्मृति ईरानी 2014 में राहुल गांधी से 1,00793 हजार वोटों से पराजित हुई थी। सपा ने अपने उम्मीदवार नहीं खड़े किए थे जिसकी वजह से वह मत कांग्रेस को मिले होंगे। लेकिन इस बार सपा-बसपा की दोस्ती की वजह से राहुल गांधी के खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं होगा। फिर मतों के उस भारी अंतराल को भाजपा कैसे पाटेगी। क्योंकि अगर हम 2014 को मान कर चले तो यहां बीएसपी को 57 हजार वोट मिले थे। सिर्फ यहीं वोट कांग्रेस की तरफ जाते हैं तो जीत का फासला काफी बढ़ जाता है। 2009 की बात करें तो उस दौरान बसपा ने यहां से 93 हजार से अधिक वोट हासिल किया था, बसपा की तरफ से आशीष शुक्ला को उम्मीदवार बनाया गया था जिसकी वजह से कांग्रेस और भाजपा के अगड़ी जातियों के कुछ मत भी बसपा की झोली में गए थे। कांग्रेस अभी तक यहां से केवल दो चुनाव पराजित हुई है। 1977 में लोकदल ने संजय गांधी को हराया था। फिर 1998 में संयज सिंह ने कांग्रेस के सतीश शर्मा को पराजित किया था। कांग्रेस यहां से 13 बार से अधिक चुनाव जीत चुकी है।
गांधी परिवार के लिए अमेठी और रायबरेली की जमींन राजनीतिक लिहाज से बेहद उर्वर रही है। रायबरेली से इंदिरा गांधी का बेहद पुराना लगाव था बाद में सोनिया गांधी उसे अपना चुनावी क्षेत्र बनाया। अमेठी से राजीव गांधी लगातार चुने जाते थे। अब उनके बेटे राहुल गांधी ने इसे अपना गढ़ बनाया है। राजीव गांधी के दौर में अमेठी को विशेष तरजीह दी जाती थी। यहां की समस्याओं को सुनने के लिए स्पेशल अधिकारियों की नियुक्ति की गयी थी। कहां तो यहां तक जाता है राहुल गांधी एक-एक गांव को अच्छी तरह जानते थे। कार्यकर्ताओं का नाम उन्हें जुबानी याद था। अमेठी आने पर कार्यकर्ताओं को नाम से बुलाते थे। इस तरह देखा जाए तो अमेठी से गांधी परिवार का रिश्ता बेहद पुराना रहा है। उस हाल में स्मृति ईरानी और भाजपा की रणनीति यहां कैसे सफल होगी यह वक्त बताएगा। लेकिन वह पूरी कोशिश में लगी हैं। हालांकि पुलवामा हमले, एयर स्टाइक और अभिनंदन की वापसी के बाद भाजपा के पक्ष में सियासी हवा बदली है। हाल के सर्वेक्षणों में बताया गया है कि वह 41 सीटें हासिल कर सकती है पिछले सर्वे से उसे 10 से अधिक सीटों का लाभ होता दिखता है। भाजपा इस बदलाव को वोट में कितना परिवर्तित कर पाएगी यह समय बताएगा। लेकिन गांधी परिवार के सियासी किले अमेठी को भेदना आसान नहीं लगता है। फिलहाल राजनीति में कुछ कहा नहीं जा सकता है।
महिलाओं ने हर क्षेत्र में कराया अपनी ताकत का अहसास
रमेश सर्राफ धमोरा
(8 मार्च महिला दिवस पर विशेष) विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान,प्रशंसा और प्यार प्रकट करते हुए इस दिन को महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में उत्सव के तौर पर दुनियाभर में हर वर्ष 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। आज दुनिया में महिलाशक्ति हर क्षेत्र में अपनी ताकत का अहसास करवा रही है। भारत में देश के दो महत्वपूर्ण मंत्रालय रक्षा व विदेश विभाग महिलाओं के हवाले हैं जिसे निर्मला सीतारमण व सुषमा स्वराज बड़ी कुशलता से सम्भाल रही हैं। आज देश में महिला सैनिक लड़ाकू विमान उड़ा रही हैं। महिलाये पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में काम कर रही हैं।
आज की महिलाओं का काम केवल घर-गृहस्थी संभालने तक ही सीमित नहीं है, वे हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। व्यवसाय हो या पारिवार महिलाओं ने साबित कर दिया है कि वे हर वह काम करके दिखा सकती हैं जो पुरुष समझते हैं कि वहां केवल उनका ही वर्चस्व,अधिकार है। जैसे जैसे महिलाओं को शिक्षा मिलती गयी उनकी समझ में वृद्धि होती गयी है। उनमें खुद को आत्मनिर्भर बनाने की सोच और इच्छा उत्पन्न हुई। शिक्षा मिल जाने से महिलाओं ने अपने पर विश्वास करना सीखा और घर के बाहर की दुनिया को जीत लेने का सपना बुन लिया जिसे उन्होने किसी हद तक पूरा भी कर लिया।
दुनिया में सबसे पहले अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आवाहन पर 28 फरवरी 1909 में यह दिवस मनाया गया। इसके बाद यह फरवरी के आखरी इतवार के दिन मनाया जाने लगा। 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन के सम्मेलन में इसे अन्तर्राष्ट्रीय दर्जा दिया गया। 1917 में रुस की महिलाओं ने महिला दिवस पर रोटी और कपड़े के लिये हड़ताल पर जाने का फैसला किया। यह हड़ताल भी ऐतिहासिक थी। जार ने सत्ता छोड़ी अन्तरिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिये उस दिन 8 मार्च थी। इसीलिये 8 मार्च महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
अब लगभग सभी विकसित व विकासशील देशों में महिला दिवस मनाया जाता है। यह दिन महिलाओं को उनकी क्षमता, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक तरक्की दिलाने व उन महिलाओं को याद करने का दिन है, जिन्होंने महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए अथक प्रयास किए। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी महिलाओं के समानाधिकार को बढ़ावा और सुरक्षा देने के लिए विश्वभर में कुछ नीतियां, कार्यक्रम और मापदंड निर्धारित किए हैं। भारत में भी महिला दिवस व्यापक रूप से मनाया जाने लगा है। महिला दिवस पर स्त्री की प्रेम, स्नेह व मातृत्व के साथ ही शक्ति सम्पन्न स्त्री की मूर्ति सामने आती है। इक्कीसवीं सदी की स्त्री ने स्वयं की शक्ति को पहचान लिया है और काफी हद तक अपने अधिकारों के लिए लडऩा सीख लिया है। आज के समय में स्त्रियों ने सिद्ध किया है कि वे एक-दूसरे की दुश्मन नहीं सहयोगी हैं।
कहने को तो इस दिन सम्पूर्ण विश्व की महिलाएं देश, जाति, भाषा, राजनीतिक, सांस्कृतिक भेदभाव से परे एकजुट होकर इस दिन को मनाती हैं। मगर हकीकत में यह सब बाते सरकारी कागजो तक ही सिमट कर रह जाती है। देश की अधिकांश महिलाओं को आज भी इस बात का पता नहीं है कि महिला दिवस कब आता है व इसका मतलब क्या होता है। हमारे देश की अधिकतर महिलायें तो अपने घर-परिवार में इतनी उलझी होती है कि उन्हे दुनियादारी से मतलब ही नहीं होता है।
महिलाओं के लिए नियम-कायदे और कानून तो खूब बना दिये हैं किन्तु उन पर हिंसा और अत्याचार के आंकड़ों में अभी तक कोई कमी नहीं आई है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15 से 49 वर्ष की 70 फीसदी महिलाएं किसी न किसी रूप में कभी न कभी हिंसा का शिकार होती हैं। इनमें कामकाजी व गृहणियां भी शामिल हैं। देशभर में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के लगभग 1.5 लाख मामले सालाना दर्ज किए जाते हैं जबकि इसके कई गुणा दबकर ही रह जाते हैं। विवाहित महिलाओं के विरूद्ध की जाने वाली हिंसा के मामले में बिहार सबसे आगे है। दूसरे नम्बर पर राजस्थान एवं तीसरे स्थान पर मध्यप्रदेश है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े के अनुसार पति और सम्बंधियों द्वारा महिलाओं के प्रति की जाने वाली क्रूरता में वृद्धि हुई है। घरेलू हिंसा अधिनियम देश का पहला ऐसा कानून है, जो महिलाओं को उनके घर में सम्मानपूर्वक रहने का अधिकार सुनिश्चित करता है। इस कानून में महिलाओं को सिर्फ शारीरिक हिंसा से नहीं, बल्कि मानसिक, आर्थिक एवं यौन हिंसा से बचाव का अधिकार भी शामिल है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के अनुसार महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दोगुने से भी अधिक हुए हैं। पिछले दशक के आंकड़ों पर आधारित विश्लेषण के मुताबिक भारत में हर घंटे महिलाओं के खिलाफ अपराध के 26 मामले दर्ज होते है।
भारत में एक लाख पच्चीस हजार महिलाएं गर्भधारण के पश्चात मौत का शिकार हो जाती हैं। प्रत्येक वर्ष एक करोड़ बीस लाख लड़कियां जन्म लेती हैं लेकिन तीस प्रतिशत लड़कियां 15 वर्ष से पूर्व ही मृत्यु का शिकार हो जाती हैं। गर्भवती महिलाओं पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 72 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं निरक्षर हैं। ऐसी स्थिति में वे गर्भधारण करने की उम्र, पोष्टिकता, भारी काम, काम के घण्टों, स्वास्थ्य जांच आदि से वंचित रहती हैं और सब कुछ भगवान पर छोड़ देती हैं। अब महिलाओं को समझना होगा कि आज समाज में उनकी दयनीय स्थिति भगवान की देन न होकर समाज में चली आ रही परम्पराओं का परिणाम है। इस स्थिति को बदलने का बीड़ा महिलाओं को स्वयं उठाना होगा। जब तक महिलायें स्वयं अपने सामाजिक स्तर पर आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं करेगी, तब तक समाज में उनका स्थान गौण ही रहेगा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी हमारी कामकाजी जनसंख्या में से 70 प्रतिशत महिलाएं अकुशल कार्यों में लगी हैं तथा उसी हिसाब से मजदूरी प्राप्त कर रही हैं। दूसरी ओर देखते हैं तो पता चलता है कि महिलाओं के कुछ ऐसे कार्य हैं जिनकी गणना ही नहीं होती जैसे चूल्हा-चौका, खाना बनाना, सफाई करना, बच्चों का पालन पोषण करना। महिलाएं एक दिन में पुरुषों की तुलना में छ: घण्टे अधिक कार्य करती हैं। आज विश्व में काम के घण्टों में 60 प्रतिशत से भी अधिक का योगदान महिलाएं करती हैं जबकि वे केवल एक प्रतिशत सम्पत्ति की मालिक हैं।
भारत में लिंगानुपात की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती है। विभिन्न देशों के लिंगानुपात पर दृष्टि डाले और विचार करें तो कुछ प्रश्न उठना स्वाभाविक है, कि ऐसे क्या कारण हैं कि भारत में 940 है जबकि वैश्विक औसत लिंगानुपात 990 है। हमें उन सभी कारणों, घटकों एवं नियोजन पर गहन चिन्तन करना होगा जिनसे उक्त प्रश्नों का उत्तर खोजा जा सके और भारत में लिंगानुपात की दयनीय स्थिति को बेहतर बनाया जा सके। हमारे देश के विभिन्न राज्यों में लिंगानुपात की स्थिति में भी बहुत अधिक अन्तर है जैसे केरल में सर्वाधिक जबकि हरियाणा में न्यूनतम लिंगानुपात है।
मगर दुर्भाग्य की बात है कि नारी सशक्तिकरण की बातें और योजनाएं केवल शहरों तक ही सिमटकर रह गई हैं। एक ओर बड़े शहरों और मेट्रो सिटी में रहने वाली महिलाएं शिक्षित, आर्थिक रुप से स्वतंत्र, नई सोच वाली, ऊंचे पदों पर काम करने वाली हैं, जो पुरुषों के अत्याचारों को किसी भी रूप में सहन नहीं करना चाहतीं। वहीं दूसरी तरफ गांवों में रहने वाली महिलाएं हैं जो ना तो अपने अधिकारों को जानती हैं और ना ही उन्हें अपना पाती हैं। वे अत्याचारों और सामाजिक बंधनों की इतनी आदी हो चुकी हैं की अब उन्हें वहां से निकलने में डर लगता है। वे उसी को अपनी नियति मान बैठी हैं।
अब नारी को अपने अधिकारों एवं समाज में सम्मान पाने के लिए उस स्थान से उतारना होगा, जहां उसे पूजनीय कहकर बिठा दिया गया है। हमारे देश में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी नहीं है, परन्तु दिशा सकारात्मक दिखाई दे रही है। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के नारे से देश में महिलाओं के प्रति सम्मान बढऩे लगा है जो इस बात का अहसास करवाता है कि अब महिलाओं के प्रति समाज का नजरिया सकारात्मक होने लगा है। मगर देश में जब तक महिलाओं का सामाजिक, वैचारिक एवं पारिवारिक तौर पर उत्थान नहीं होगा तब तक महिला सशक्तिकरण का ढ़ोल पीटना छलावा ही बना रहेगा ।
अपराध बोध से ग्रसित भाजपा को संघ ही सहारा…..?
ओमप्रकाश मेहता
जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव निकट आने की आहट बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे पिछले पांच साल के शासन में जनता की सुविधाओं की कसौटी पर खरी नहीं उतर पाने वाली अपराध बोध से ग्रसित भारतीय जनता पार्टी की घटराहट बढ़ती जा रही है, जिसका साक्ष्य इस पार्टी के नेताओं के चेहरों पर व्याप्त चिंता की लकीरों और चुनाव प्रचार में उपयोग की जा रही असंयत और निम्नस्तरीय भाषा से स्पष्ट नजर आने लगा है, शायद इसीलिए पिछले पांच साल से उपेक्षित अपने संरक्षक राष्ट्रीय स्वयं सेवक की भाजपा ने पूछ-परख बढ़ा दी है, और जहां तक संघ का सवाल है, वह अपमान व उपेक्षा के कडुवे घूंट पीने के बाद भी एक बिगड़ी औलाद की तरह भाजपा की चिंता में परेशान होकर अपने इस बिगडैल बेटे के लिए अगला मार्ग प्रशस्त करने में जुटा है।
जिस तरह इंसान को उसके आखिरी क्षणों में उसके द्वारा किए गए अच्छे-बुरे कर्म याद आते है, उसी तरह इंसान की प्रजाति से अलग हुए राजनेताओं को चुनाव से पहले उनके अच्छे-बुरे कर्म याद आते है और जिस सत्तारूढ़ दल या उसके नेतृत्व के अच्छे कर्मों याने चुनावी वादे ईमानदारी से पूरे करने का पलड़ा भारी होता है, उसे राजनीतिक मौक्ष (याने पुनः सत्तारूढ़ होने) की चिंता नहीं रहती। इसीलिए आज केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी अपने चुनावी वादें पूरे नहीं कर पाने के अपराध बोध से ग्रसित है और चुनावी वैतरणी पार करने के लिए छटपटा रही है और संघ की पतवार भी उसके कोई विशेष काम नहीं आ रही है।
आज पूरा देश गवाह है कि पांच साल पहले 2014 के लोकसभा चुनाव के समय ‘धूमकेतु’ की तरह केन्द्र में उभरे नेता नरेन्द्र भाई मोदी ने देश की जनता को कितने सतरंगी सपने दिखाए थे, और पूरा देश ‘‘अब की बार, मोदी सरकार’’ तथा ‘‘आधा पेट खाएगें, मोदी की सरकार बनाएगें’’ के नारों में डूब गया था, भाजपा ने चुनावी सभाओं के अलावा अपने ‘वचन-पत्र’ या ‘घोषणा-पत्र’ में ही, अनैक महत्वपूर्ण वादे किए थे, यदि वे सभी वादे पांच वर्षीय मोदी शासनकाल में पूरे हो जाते तो आज देश की दशा-दिशा अलग ही होती किंतु उनमें से पांच फीसदी वादे भी पूरे नहीं हो पाए और ‘आधे पेट खाकर’ मोदी की सरकार बनाने का नारा लगाने वालों के पेट अब आधे भरे भी नहीं रह पाए, फिर जन कल्याण व जन सुविधा से जुड़े वादों के अलावा कुछ जन भावना से जुड़े वादों की भी पूर्ति नहीं हो पाई, जिनमें रामजन्म भूमि पर विशाल मंदिर का निर्माण, कश्मीर से धारा-370 व 35ए खत्म करना तथा कश्मीर से निष्कासित पण्डितों की वापसी आदि है। जन अपेक्षाओं से जुड़े वादों की पूर्ति नहीं होने से जहां आमजन मोदी सरकार से नाराज है, वहीं राम मंदिर व जम्मू-कश्मीर से जुड़े वादों की पूर्ति नहीं होने से भाजपा के अपने हिन्दू संगठन नाराज है, और फिर मोदी सरकार के चंद फैसलों जैसे नोटबंदी, जीएसटी आदि के कारण भी देश का मतदाता वर्ग नाराज रहा। फिर मोदी जी ने प्रधानमंत्री के रूप में पांच सालों में जो 93 देशों की यात्राऐं की और उन पर ढ़ाई हजार करोड़ रूपया जो खर्च किया, उसको लेकर भी देश का बुद्धिजीवी वोटर इसलिए नाराज है, क्योंकि उन विदेश यात्राओं का देश को कोई खास रोजगार व आर्थिक संबंधी लाभ नहीं मिल पाया और जहां तक देश की स्थिति है, वह उस जगह से भी काफी पीछे खड़ा है, जहां पांच साल पहले खड़ा था, इन्हीं सब कारणों से देश में सत्तारूढ़ दल अपराध बोध से ग्रसित है और स्वयं की अनुपलब्धि को छुपाकर ‘‘सर्जिकल स्ट्राईक’’ जैसे मुद्दों पर चुनावी वैतरिणी पार करने की जुगत में है।
आज की भाजपा की इस राजनीतिक स्थिति से सबसे अधिक दुःखी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके प्रमुख डाॅ. मोहनराव भागवत है, क्योंकि उन्हें हर क्षेत्र से भाजपा के अंधकारमय भविष्य की रिपोर्ट मिल रही है, इसलिए अब संघ येन-केन-प्रकारेण ग्वालियर जैसे ‘संघ मेले’ आयोजित करने पर मजबूर है, और अपराधबोध से ग्रसित भाजपा भी अब ‘‘संघम् शरणम् गच्छामि’’ का जाप कर संघ प्रमुख के सामने नतमस्तक है। अब संघ अपने प्रयासों में कहां तक सफल हो पाता है और भाजपा को वह कितना ‘‘श्रापमुक्त’’ कर पाता है, यह तो भविष्य के गर्भ में है।